रिश्ता रूह का..?

"प्रेमिकाएं..!
जो कभी पत्नियां नहीं बन पातीं..।
और पत्नियां..!
जो कभी प्रेमिकाएं नहीं बन पातीं..।

कोई खास फ़र्क़ नहीं होता दोनों में'
एक हृदय की मालकिन होती है..।
तो दूसरी घर की..।

मगर फिर भी दोनों कंगाल रहती हैं।
एक  प्रेमी के मन को तो घर बना लेती है..।
पर उसकी चौखट पर जाने का अधिकार
जीवनपर्यंत नहीं पाती..।

और जो घर की स्वामिनी होती है..
वो पति के मन की स्वामिनी बनने में
पूरा जीवन ख़र्च कर देती है..।

पत्नी को हिदायत होती है..
घर की मान-प्रतिष्ठा, 
परंपराओं को बनाये रखने की..।

और प्रेमिका को हिदायत होती है..
पुरुष के सम्मान पर आंच न आने देने की..
आखिर सवाल सामाजिक प्रतिष्ठा का है..।

पत्नियां कुढ़ती हैं मगर चुप रहती हैं..
सब जानते समझते हुए भी कि,
पति के मन की डोर किसी और के हाथ में है..।

प्रेमिकाएं घुटती रहती हैं आजीवन..
मगर प्रेमी को छोड़कर जा नहीं पातीं
क्योंकि वो बेबसी और
मजबूरियों का हवाला देकर रोक लेता है..।

अलग होने की बात करते ही अक्सर,
उसकी साँसें धौंकनी सी चलने लगती है..।
उसका हाई ब्लडप्रेशर प्रेमिका को बर्फ सी
ठंडक दे जाता..
और किसी अनहोनी की आशंका से, 
जम जाते हैं प्रेमिका के अलग होने के विचार..।

वहीं पत्नियां सब कुछ समझते हुए भी,
पिघल जाती हैं सुहाग के नाम पर..।

पति गलत होता है या सही इस बहस से परे, 
वो.....निभाता है वे सारे दायित्व जो
उसे निभाने होते हैं पति की हैसियत से..
और बच्चों के पिता की हैसियत से..।

बुखार में तप रही पत्नी के माथे पर पट्टियां डालता है,
बच्चों को तैयार कर स्कूल भी भेजता है..।
पत्नी और बच्चों के बेहतर भविष्य की चिंता में
भूल जाता है अपने सारे सपने..।

बस नहीं भूल पाता है तो अपनी प्रेमिका को
वही प्रेमिका ..जिसके साथ उसने अपना मौन बाँटा और अनकहे दुःख भी..।

प्रेमिका उसके मन के उन हिस्सों की धूप थी,
जिनकी सीलन ने उसे भीतर ही भीतर 
ख़त्म कर दिया..।

हाँ ! पर वो उससे ब्याह न कर सका..
क्योंकि.....'ब्याह का निर्णय,
हमारे समाज में हम स्वयं नहीं ले सकते'..।

सच तो ये है कि हम इतने कायर होते हैं
कि हम अपने लिए कभी खड़े नहीं हो पाते..
कभी लड़ नहीं पाते...।"

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