विलुप्त हो जाएंगे दुर्लभ पक्षी?
नवनीत कुमार
पिहानी कस्बा सहित ग्रामीण इलाकों में आहार के लिए गौरैया, तीतर, बटेर, हरियल, बघेरी, जलमुर्गी, बगुला, वनमुर्गी व मैना जैसे छोटे पक्षियों के शिकार से इनका संरक्षण सवालों के घेरे में है।
वन प्राणी संरक्षण अधिनियम को ठेंगा दिखाते हुए विलुप्त पक्षियों को मारना व उन्हें बेचने का खेल जारी है।
कस्बे के संभ्रांत व्यक्तियों ने विलुप्त होते इन पक्षियों के संरक्षण व तस्करों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है।
अटरिया पर चहकने वाली चिड़िया रानी (गोरैया) न जाने कहां गायब हो गई है। बच्चे भी अब 'चिड़िया रानी बड़ी सयानी' गाना भूल गए हैं।
यहां घर आंगन में चिड़ियों के कलरव ध्वनि सुनाई देती थी।
चिड़ियों की चहचहाहट कानों में शहद घोलता था। आकाश में अग्नि, अरधंग, चील, टिटही, सिल्ली और बगुला पहरेदारी किया करते थे।
समय बदला तो इन पर शामत ही आ गई। अपने स्वार्थ के लिए लोग जहां इनका शिकार करने लगे। वहीं कीटनाशक दवा के बढ़ते इस्तेमाल ने इनकी दुनिया ही उजाड़ दी है।
पर्यावरण संतुलन में अहम किरदार निभाने वाली चिड़िया लगातार कम हो रही है। इनकी कई प्रजातियां लुप्त हो चुकी है।
बाजार में मांसाहर भोज्य पदार्थ के तौर पर मुर्गा उपलब्ध होते हुए भी चिड़ियों के मांस के शौकीन लोग विलुप्त होते पक्षियों का शिकार कर रहे हैं। यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में ही दुर्लभ पक्षी विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए हैं।
बहेलिया चिड़ियां पकड़ते हैं और उसे बेच देते हैं। बटेर चिड़िया के नाम पर नन्हीं गौरैया को भी मार कर उसका मांस बेचा जा रहा है। धानापुर व चहनियां के तराई क्षेत्रों व चकिया के वनांचल क्षेत्र में इन पक्षियों का शिकार धड़ल्ले से किया जा रहा है।
पिहानी कस्बे में एक मीनार मस्जिद के निकट पिजरे में बंद दुर्लभ पक्षियों के साथ बहेलियों को देखा जा सकता है।
पक्षियों के संरक्षण, सुरक्षा, अवैध शिकार, तस्करी और अवैध व्यापार को नियंत्रित करने के उद्देश्य से भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 को लागू किया गया था। जनवरी 2002 में अधिनियम में संशोधन किया गया और अधिनियम के तहत इस अपराध के लिए जुर्माने और सजा का प्रावधान किया गया लेकिन कड़े कानून के बावजूद धड़ल्ले से वन्य जीवों के शिकार की खबरें आती रहती हैं। खासकर वैसे पक्षी जो विलुप्त होने की कगार पर हैं।
मांस के लिए चिड़िया का शिकार केवल शौकीन लोगों तक ही सीमित नहीं है। वरन गरीब व खानाबदोश जनजाति अपने निवाले के लिए इसका शिकार करते रहते हैं। खानाबदोश जनजाति भोजन की कमी और अज्ञानता में यह कदम उठाते हैं। दरअसल इन जनजातियों का मुख्य आहार पशु-पक्षियों का शिकार ही है। पक्षियों के संरक्षण के लिए बने कानून के उल्लंघन की इजाजत न तो शौकीनों को है और न ही जनजातियों को।
दिलचस्प बात यह है कि इसे लेकर न तो समाज में कोई जागरूकता है और न ही प्रशासन ध्यान देता है। लगता है मानों दुर्लभ पक्षियों के संरक्षण की सारी कवायद कोई इनके लिए मायने नहीं रखती है। गोपाल कहते हैं कि यदि वाइल्ड लाइफ एक्ट के तहत कुछ ना कुछ सजा दी जाए तो इसमें काफी कमी आएगी।
महज स्वाद या पेट भरने के लिए भी दुर्लभ व विलुप्त हो रहे पक्षियों के शिकार पर रोक लगनी चाहिए।
वर्जन वनजीवों के शिकार पर लगातार कार्रवाई हो रही हैं। विभाग के लोग ऐसे लोगों पर बराबर नजर रखते हैं।
पक्षियों का संरक्षण हो, इसकी संख्या बढ़े इसके लिए बरबार जागरूकता अभियान भी चलाया जा रहा है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें