अपना बना लो..!
आज की कहानी
..अभी भी समय है भगवान को ..अपना -बना -लो?
एक वृद्ध मर रहा था। मरा नहीं था, बस मर ही रहा था। उसके चार बेटे उसके पास ही खड़े थे। उनके नाम थे- सोम, मंगल, बुध, वीर। वह चाहता तो सात बेटे था, पर मंहगाई के चलते चार पर ही संतोष कर लिया था।
ये चार आपस में बात कर रहे हैं, सोम- भाई! जब पिताजी मर जाएँगे तो उनकी शवयात्रा हम गुप्ता जी की मर्सिडीज़ में निकालेंगे। लोग भी तो देखें कि किसका बाप मरा है।
मंगल- भैया! गुप्ता जी कार दे तो देंगे, पर सारी उम्र सुनाएँगे कि तुम्हारा बाप मरा था, तो मैंने कार दी थी। मैं अपने दोस्त बंटी की होंडा माँग लाऊँगा। होंडा भी कोई छोटी कार नहीं।
वीर- देखो भैया! बुरा न मानना। आल्टो में पिताजी की लाश ले तो जाएँगे पर फिर हमेशा उसमें बैठते वहम आया करेगा। श्मशान वालों ने इस काम के लिए एक ठेला बनाया हुआ है। अब कार हो या ठेला, मरने वाला तो मर ही गया, तब क्या फर्क पड़ता है?
और जैसा कि मैंने पहले ही बता दिया है की वृद्ध मर रहा था, मरा नहीं था। वह तो सब सुन रहा था। वह उठ कर बैठ गया और बोला- मेरी साइकिल कहाँ है? मेरी साइकिल लाओ!
वह उठा, और साइकिल चलाकर श्मशान घाट पहुँच गया, साइकिल से उतरा, साइकिल खड़ी की, भूमि पर लेटा,और मर गया।
महापुरुष जी कहते है कि यही जगत के संबंधों का ढंग है। प्राण छूट जाने पर इस शरीर को कोई नाम ले कर भी नहीं बुलाता, सभी "लाश-लाश" कहते हैं। अभी भी समय है, प्राण छूटने से पहले ही अपने असली संबंधी को अपना बना लो।
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