गिद्ध लुप्त नहीं हुए..! हम खुद ही गिद्ध बनते जा रहे हैं...?

मुकेश प्रसाद बहुगुणा

पिछले कई दिनों से विशेषज्ञों में महिलाओं के साथ हो रही ऐतिहासिक घटनाएं, बाल चित्रण और उन्हें मानसिक व शारीरिक रूप से प्रशिक्षित किया जा रहा है, उदाहरण के लिए, सरकार में पिछले कई दिनों से महिलाओं के साथ हो रही घटनाओं का खुलासा हो रहा है। 

लगभग पिछले 2 महीने से कॉन्स्टेंट और महिलाओं के साथ हो रहे हैं अत्याचारी और बालाकार जैसी घटनाएँ मठों में सांठगांठ हो रही हैं, क्योंकि अभी तक कोई भी मठाधीश सरकार द्वारा अपराधियों की हत्या नहीं की गई है और न ही कोई जांच मित्र बनाया गया है। कैमरे में एक हादसा हुआ....सोशल मीडिया पर पोस्ट- वीडियो की बाढ़ आ गई...कुछ वीडियो ऐसे भी थे जिनमें कथित पत्रकार प्रत्यक्षदर्शियों से जुड़े हुए हैं-कैदों के टोलने के बारे में..बताओ...आपने क्या देखा? अक्सर कहीं भी कोई दुर्घटना होने के बाद ऐसे वीडियो की भरमार दिखाई देती है, जिसमें पीड़ित की चीख पुकार - पीड़ा - बबाका खून - इंसानों की आपाधापी की स्थिति को दिखाया जाता है .... कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वैज्ञानिक लोग घटना को लाइव दिखाना शुरू कर देते हैं .... इसके बजाय कि मदद की जाय .... 

शर्म की बात ये है कि ये दोस्ती/जागरूकता कह कर अपनी उदासी छुपाती है I 

इस तरह के विचित्र रहस्य के लोग पहले भी हुआ करते थे..किन्तु छुटपुट... लेकिन पिछले कुछ दशकों से इस नमूने ने ऑर्गेन विधि व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है...खासतौर से इराक युद्ध के समय से....जब विनाश - वेदना - दु:ख - मृत्यु के दृश्य घर-घर के वास्तविक कमरे तक बताए गए थे।

याद करिए, शहरों पर गिरी मिसाइलें... बम... विस्फोट का दृश्य, जो आराम से चाय पीते हुए टीवी के पर्दे पर जाते थे....किसी ने चाय न छोड़ी..किसी की भूख खत्म नहीं हुई.... किसी पर कोई असर ही न देखा.... 

किसी समय या पहले के समय में अपनी जर्नल ट्रेनज बघारने का सुभीता हो गया ...... लगभग हर दर्शक विनाश के भयानक -तकनीक का विशेषज्ञ बन गया था .. ..मानव कोकिरा की तकनीक की चर्चा में प्रमुख हो गए ..... ..कुछ पुरानी बात ही तो है, जब यूक्रेन की तबाही के लाइव दृश्य लगभग हर चैनल पर चटखारे लेकर जा रहे थे।

इराक युद्द का लाइव प्रसारण आपातकालवात ...जब मरते हुए थे इंसान की पीड़ा -उसकी और उसके परिवार के लोगों की भावनाएं गौण बन गयीं ....आज सोशल मीडिया पर जो दिख रहा है, इसी आपातकाल का प्रतिफल है ....जब बड़े बड़े प्रतिष्ठित पत्रकार-चैनल दिखा सकते हैं, तो आदर्श व्यक्तित्व के पत्रकार कैसे पीछे रह सकते हैं? अब मृत्यु-दुर्घटना की विभीषिका खुद को वैज्ञानिक सिद्ध करने का जरिया हो गई...हकीकत यह है कि हम वैज्ञानिक तो दूर हैं..सही में जिंदा ही नहीं हैं..

सन 1993 के मार्च महीने में सैनिक ग्रेड-भद्रा दुनिया के जाने माने अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में एक तस्वीर छपी थी- द वल्चर एंड द लिटिल गर्ल शीर्षक से दी गई थी, इस तस्वीर में अलाकेड सूडान के किसी क्षेत्र में भोजन की तलाश में घिसटते हुए बच्चे को दिखाया गया था, और साथ में एक गिद्द भी था, जो बच्चे की मौत का इंतज़ाम कर रहा था। इस तस्वीर को पुलित्ज़र अवॉर्ड भी मिला था।

लेकिन, एओस केविन कार्टर को खुद पर इतना आत्मग्लानि हुई, वह मरता हुआ बच्चे के सपने में दिखता था ..... कुछ महीने बाद उसने आत्महत्या कर ली मैंने अपने शहीद नोट में लिखा था..

"मैं हत्याओं, लाशों, क्रोध और दर्द की ज्वलंत यादों से परेशान हूं... भूखे या घायल बच्चों की, ट्रिगर-खुश पागलों की, अक्सर पुलिस की, हत्यारे जल्लादों की..." 

पीड़ा- मृत्यु- दुःख-विलाप अगर मूर्ति बन जाए...तो समझो हम गिद्दों की परम्परा में प्रवेश कर चुके हैं...यह एक ऐसी पाशाची संस्कृति है जिसमें तृषा-पीड़ा-मृत्यु का आनंद आता है....

कभी-कभी मुझे लगता है कि संसार के जिन चिन्हों में जीवन नष्ट हो गया है, और अब जीवन उत्पन्न-पनपने की कोई वस्तु नहीं है....वहां भी कभी ऐसी ही पैशाची सभ्यता ने पैर पसारे होंगे....हर तरफ गिद्ध ही गिद्ध...और जब गिद्धों के पास खाने के लिए कोई विनाश न बचेगा...तो वे एक दूसरे को ही खा गए..

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