जिंदा ही कब थे हम?

 मरा हुआ मुर्दा


गंगा में तैरती हुई एक लाश ने 

दूसरी से पूछा..


अरे आप भी? आप कब मरे?

मुर्दा कुछ गम्भीर होकर बोला,

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?


बहुत पहले ही तो मर चुके थे हम।

जब चुप चाप देख रहे थे नजारा,

जब कोई हक लूट रहा था हमारा;

कब बोले थे, 

कब उठे थे अधिकारों के लिए हम,

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?


जब जरूरत थी देश को,

स्कूल, अस्पताल और काम की,

हम बातें कर रहे थे मंदिर, 

मस्जिद और पाकिस्तान की;

जात-पात और धर्म  के नशे में चूर थे हम;

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?


किसान मजदूर सड़क पर था,

अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा था;

जब देश का हर एक संस्थान,

कौड़ी के दाम बिक रहा था;

हो रहा था जुल्म बुद्धिजीवियों पर;

किसी कोने में बैठे,  

खिलखिला रहे थे हम;

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?


जब बेरोजगार, 

काम के लिए भटक रहा था,

जब मरीज हस्पतालों के बीच में ही लटक रहा था,

जब पीटे जा रहे थे विद्यार्थी,

लगाकर झूठे देशद्रोह के जुर्म,

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?


जिंदापन तो एक नाटक था, 

कितने लम्बे समय से नफरत का जहर निगल रहे थे हम,

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?


कभी ताली, कभी थाली, 

तो कभी दीए जला रहे थे ,

ऐसे नाटकों से कोरोना को भगा रहे थे;

जब लेनी थी दवा, तब गोमूत्र पी रहे थे ,

जब एकांत में रहना था, 

तब रैलियों में जा रहे थे हम;

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?


जब अस्मत लूटने वाले छूट रहे थे, 

पीड़िताओं पर मुकद्दमे हो रहे थे, 

जब बलात्कारियों के समर्थन में जलूसों पर चुप बैठे थे हम;

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?


बस फर्क सिर्फ इतना ही है;

अब  रुकी हैं, तब चल रही थीं सांसें;

हम जिंदा भी मुर्दे थे,

आज बस मरे हुए मुर्दे हैं हम,

..दोस्त, जिंदा ही कब थे हम?

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