क्रांति ज्योति की मशाल थे महात्मा ज्योतिबा फुले



डॉ. कान्ति लाल यादव

19वीं शताब्दी में ज्योतिबा फुले एक महान समाज सुधारक थे जिन्होंने भारत की जनता मैं बिलखती लड़खड़ाती मानवता को संबल प्रदान कर पशुता का जीवन यापन करने वाले इंसानों के आंसू पोछने ने का पुनीत कार्य किया था।उन्होंने अंग्रेजों के गुलाम भारत की जनता को दशा और दिशा बदलने का काम किया। भारत में इंसान को बांटने वाली प्रथा जाती- पाती, छुआछूत जैसी कुप्रथा डटकर, तर्कपूर्ण भाषा एवं कार्यशैली से बदलाव भरा चुनौतीपूर्ण बीड़ा उठाकर सामाजिक विकास का सूत्रपात किया। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने, महिलाओं को अधिकार प्रदान करने और  किसानों की बुरी दशा को सुधारने का उल्लेखनीय कार्य किया था‌। उनके समय में भारतीय समाज अंधविश्वास की घोर अंधेरी काली रात मैं बेसुध थी। घोर अंधविश्वास  में जकड़ा हुआ समाज था। ऐसे समय में महाराष्ट्र की धरती पर ज्योतिराव जैसे महान समाज सुधारक का जन्म हुआ। उनका पूरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था। किंतु उन्हें महात्मा ज्योतिबा  फुले के नाम से लोकप्रियता मिली। ज्योतिराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 में पुना में हुआ था। महाराष्ट्र के कोल्हापुर के पास एक पहाड़ी पर महाराष्ट्र के बहुजन समाज के देवता "ज्योतिबा/जोतबा" का मंदिर था। वहां की प्रमुखता जोत से थी। मराठों के बहुत से ग्रामों में "जोत" कुल देवता का नाम है। महात्मा फुले के जन्म दिवस पर इस देवता का उत्सव था इसलिए उनका नाम ज्योति राव रखा गया था। दीपक की लौ से उत्पन्न ज्योति से है। जो उन्होंने अपने जीवन में सार्थक भी किया; दीपक की ज्योति के समान। उनके जन्म के 9माह बाद मां चिमणाबाई का स्वर्गवास हो गया था।समझदार पिता गोविंद राम ने दूसरा विवाह न करने का संकल्प लेकर अपने पुत्र राजाराम तथा ज्योतिराव का पालन- पोषण हेतु ज्योतिराव की विधवा मौसेरी बहन सगुनाबाई के जिम्मे दिया गया।1847 वर्ष की उम्र में जोतीराव की एक मराठी पाठशाला में दाखिला करवाया गया। चौथी कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद कुछ हिंदू धर्म ठेकेदारों ने  पिता गोविंदराव को धर्म विरुद्ध बताकर 12 वर्षीय ज्योति राव को स्कूली शिक्षा से वंचित कर दिया। 13 वर्ष की आयु में 1840 में ज्योतिराव का बाल विवाह  सातारा जिले की 9 वर्ष की सावित्रीबाई से कर दिया गया। उस समय बाल विवाह होना आम बात थी। सावित्रीबाई एक सच्ची जीवनसंगिनी, प्रेरणा स्रोत एवं प्रतिछाया की मूर्ति थी। ज्योति राव बचपन से ही मानवता प्रेमी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनकी विलक्षण प्रतिभा एवं तार्किकता को देखते हुए उनके पड़ोसी उनके पिता को पढ़ाने के लिए कहने लगे तब पिता गोविंदराव जी फुले ने 1841 में 14 वर्ष की आयु में जोतीराव को पुनः पढ़ने हेतु बुधवार बाड़ा स्थित स्कॉटीश मिशन की सरकारी पाठशाला में प्रवेश दिला दिया।उन्होंने मन से पढ़ाई की तथा स्कूली शिक्षा के साथ धार्मिक ग्रंथों की गहराई से पढ़ना जारी रखा।

1848 की एक घटना ने उन्हें क्रांतिकारी बना दिया।ज्योतिराव के सहपाठी एवं अंतरंग ब्राह्मण मित्र सखाराम के निमंत्रण पर उनकी बरात में जा रहे थे तब ब्राह्मण जाति के लोगों को बुरा लगा।एक ब्राह्मण ज्योतिबा को डाटने लगा -"शुद्र होकर ब्राह्मण दूल्हे की बारात में चल रहे हो! तुम यहां से एक तरफ हटो!"नन्हे ज्योति राव को बुरी तरह से प्रताड़ित किया। ज्योतिराव को बहुत बुरा लगा और वे वहां से अपने घर लौट आए तब पिताजी को इस घटना को बताने पर पिताजी ने भी उन्हें ही डांटा कि  "तुम ऊंची जाति की बरात में क्यों गए ? दोष उनका नहीं तुम्हारा है।"  उनके मन में बार-बार प्रश्न उठ रहा था -कैसे कोई उच्च जाति का और एक नीच जाति हो सकता है। इंसान अपने कर्म से कुछ और नहीं होता है। इस घटना ने ज्योतिबा के मन मस्तिष्क में विद्रोह के बीज को बो दिया। इस अपमान की वजह से उन्होंने जाति प्रथा को जड़ से खत्म करने का संकल्प लिया।

ज्योतिबा फुले जाति व्यवस्था को मानवता के लिए घातक मानते थे जो इंसान इंसान को अलग करने वाला दुश्मन एवं जहर है। उनका कहना था कि चालाक मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण करने की व्यवस्था है।

ज्योतिबा को ईसाई धर्म में व्याप्त मानवतावाद ने बचपन में बेहद प्रभावित किया।  बचपन में उन पर थॉमस पेन की पुस्तक 'राइट्स ऑफ मैन'  का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। जिसमें न्याय और मानवता का दिग्दर्शन हुआ। अमेरिका में विद्यमान नीग्रो गुलामी के तीव्र विरोध का वर्णन पढ़ने को मिला। थॉमस पेन के तीनों सिद्धान्तों से वे बेहद प्रभावित हुए। जो उनके जीवन पर्यंत प्रेरणादायी बने रहे - मानवता का सम्मान, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आग्रह और गुलामी को धिक्कार। उन्होंने नारी को पुरुष के बराबर का हक दिलाने हेतु स्त्री अधिकारों का जोरदार समर्थन किया। वे सदा स्त्री-पुरुष में बराबरी का दर्जा दिलाने हेतु सदा स्त्री अधिकार के लिए हिमायती ् रहे।

प्रबुद्ध समाज के निर्माण हेतु उन्होंने मानसिक विकलांगता से  ग्रसित समाज को जड़ से उखाड़ फेंकने का भरसक प्रयास किया और उसमें काफी हद तक वे सफल भी रहे।वे कहते थे -"मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । इससे अच्छी समाज सेवा हो ही नहीं सकती।" वें राजनीतिक गुलामी से ज्यादा सामाजिक गुलामी को घातक मानते थे। उनका मानना था कि सामाजिक बुराइयों एवं असमानता के कारण अशिक्षा, धार्मिक अंधविश्वास, गरीबी, छुआछूत को मानते थे। वे बालिकाओं के लिए पाठशाला खोलने वाले प्रथम भारतीय थे। जनवरी 1848 पुना में भिंडे के मकान में प्रथम बालिका पाठशाला खोली थी। 1855 में उन्होंने रात्रि पाठशाला खोली ताकि कामकाजी लोग पढ़ सके। ऐसी रात्रि में पाठशाला खोलने वाले प्रथम भारतीय थे। दूरदराज के बच्चों के लिए छात्रावास का प्रबंध किया। उनके लिए पुस्तकालय खोला। गरीब छात्रों के लिए सरकार से छात्रवृत्ति देने की सुझाव दिए। व्यवसायिक शिक्षा की पहल की।सन 1882 में हंटर कमीशन को 12 वर्ष तक के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा की सिफारिश की। उन्होंने 1863 में 'बाल हत्या प्रतिबंध गृह' खोला। इसी बीच उन्होंने कठिनाइयों का सामना किया। ज्योतिबा फुले ने विधवा ब्राह्मणी काशीबाई नाम की महिला के पुत्र को गोद लिया और उसे पढ़ा कर डॉक्टर बनाया। उसका नाम यशवंत रखा।बाद में ज्योतिबा का उत्तराधिकारी बना।

11 मई 1888 को मुंबई के मांडवी नामक स्थान पर कोलीवाडा सभागृह में बेठेकर की अध्यक्षता में तथा विशाल जनसमुह के बीच में उन्हें "महात्मा" की उपाधि प्रदान की गई थी।  आधुनिक भारत में ज्योतिबा फुले को सबसे पहले "महात्मा की उपाधि" से नवाजा गया था। वे विश्व महामानव थे। युग प्रवर्तक थे। कोल्हापुर नरेश ने उन्हें "मार्टिन लूथर" की उपाधि दी थी। महात्मा गांधी ने उन्हें "असली महात्मा" कहा था। डॉक्टर अंबेडकर उन्हें अपना तीसरा गुरु के रूप में मानते थे। डॉ. आंबेडकर उनसे काफी प्रभावित थे।

वे बुद्धिमान, बेहतरीन लेखक थे। महान विचारक दार्शनिक क्रांतिकारी कार्यकर्ता संपादक एवं क्रांतीज्योती की मशाल थे। उन्होंने गुलामगिरी, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसले का पखड़ा, किसान का कोड़ा, तृतीय रत्न, अछूतों की कैफियत आदि प्रमुख ग्रंथ लिखे। 1877 में 'दीनबंधु' नाम का साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी किया था।

वे इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि सामाजिक असमान तो पूरी तरह खत्म किया जाए ,इसके लिए एकमात्र मंत्र "शिक्षा प्राप्ति" ही है।

अछूत बच्चों को पढ़ने हेतु उन्होंने 1848 में प्रथम पाठशाला में बुधवारपेठ में खोली थी ‌

उन्होंने सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा हेतु 1857 में 4 बालिकाओं से विद्यालय प्रारंभ किया। उन्हें घर छोड़ने के लिए बाध्य किया गया किंतु उन्होंने जरा भी परवाह नहीं की और अपने लक्ष्य पर अडिग रहे। महात्मा फुले प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने स्त्री शिक्षा एवं नारी मुक्ति की आवाज उठाई थी। उन्होंने बालिकाओं को पढ़ाने के लिए अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ा लिखाकर तैयार किया। उन्हें भारत की प्रथम शिक्षिका का गौरव प्राप्त हुआ। सावित्री बाई जब पाठशाला में पढ़ाने जाती थी तब कट्टरपंथी लोग उन पर ताने कसते, कीचड़, गोबर ,विष्ठा फैंकते और गालियां देते किन्तु उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनका मानना था कि समाज में बदलाव लाने की शुरुआत घर से होनी चाहिए।ज्योतिबा के पड़ोसी उर्दू फारसी के अध्यापक मुंशी गफ्फार बैग ने उनकी हमेशा सहायता की।उनकी बेटी फातिमा आगे चलकर ज्योतिबा की पाठशाला में प्रथम मुस्लिम शिक्षिका बनी। 1852 में उन्होंने अछूतों के लिए पाठशाला खोली।

वे बिना वेतन भी 4 घंटे पढ़ाते थे। भारत में अछूतों के लिए प्रथम पाठशाला और पुस्तकालय खोलने  का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उन्होंने अट्ठारह पाठशाला खोली थी। हैदराबाद के कर्नल टायलर ज्योतिबा को महिला शिक्षा आंदोलन, समाज सुधार और जागृति का जनक मानते थे। उन्होंने ने 1854 में विधवाओं के लिए आश्रम भी बनवाया तथा अवैध बाल शिशु गृह की स्थापना की । 1855 में उन्होंने रात्रि पाठशाला खोली।मैकाले की शिक्षा नीति का उन्होंने विरोध किया था और कहा था कि -"यह शिक्षा सिर्फ उच्च वर्ग के लोगों तक ही सीमित है।"  उस दरमियां जॉर्ज पंचम और विक्टोरिया के गीत गाए जा रहे थे तथा हिंदू अंग्रेज एकता के नारे लगाए जा रहे थे तब उन्होंने भरी सभा में अंग्रेजों के सामने कविता पढ़ी-" दादी मां हम बहुत खुश हैं परंतु उन्नीस करोड़ अशिक्षित  हैं।"


उन्होंने सर्वप्रथम प्राकृतिक आपदाओं के समय पीड़ितों को आर्थिक सहायतार्थ राहत कोष की व्यवस्था की थी।उन्होंने सरकारी पदों पर शिक्षकों की योग्यता को ध्यान में रखते हुए निर्धारण की सिफारिश की तथा भारतीय कृषि को आधुनिक कृषि हेतु सरकार इंग्लैंड भेजकर नई कृषि तकनीक सिखाने का सुझाव दिया तथा उन्होंने 1883 में ड्युयूक अॉफ कनॉट

 को कृषि को की दयनीय हालात से अवगत कराया। उन्होंने श्रमिकों की दीन दशा को देखते हुए उनके सहयोग से समाजसेवी लोखंडे ने 'श्रमिक संगठन' बनाया था।

1868 में अपने कुएं को सार्वजनिक रूप से अछूतों के हितार्थ वर्षों से प्रतिबंधित छुआछूत की कारा को तोड़ा । 1868 में ही अपने पिता की मृत्यु पर अंतिम संस्कार और श्राद्ध पर पुरोहितों को दिया जाने वाला दान को गरीबों, तथा जरूरतमंदों में बांट दिया। छात्रों को पुस्तकें बांटी। आज के दौर में इनके विचार कितने प्रासंगिक है।

उन्होंने बिना पंडित के विवाह संपन्न किए । इसके लिए उन्होंने कानूनी लड़ाई भी लड़ी।

महात्मा ज्योतिबा फुले विधवाओं की स्थिति को देखकर बहुत द्रवित होते थे । उन्होंने विधवाओं के बाल कटवाने जैसी (केशवपन) घृणित प्रथा के विरोध में आवाज उठाई थी उन्होंने पूना के नाइयों को एकत्रित कर उन्हें जागृत किया। मुंबई में 500 नाई लोगों को एकत्रित कर इस घृणित प्रथा के प्रति रोष जताकर जागृति लाइ। उन्होंने देवदासी प्रथा (भगवान की मूर्ति के साथ लड़कियों का विवाह करा के देवदासी बनाने की प्रथा) का विरोध किया। उच्च कुल की लड़कियों को भोगदासियां तथा वेश्या व्यवसाय में फंसा दी जाती थी। उन्होंने बाल विवाह एवं बहू विवाह को गैरकानूनी तथा अंतर जाति विवाह एवं विधवा पुनर्विवाह को 1872 में सरकार द्वारा नेटिव एक्ट' पास करवाकर वैध करार दिलवाया। उन्होंने मद्यपान का भी विरोध किया।

1873 में उन्होंने दलितों एवं निर्बल वर्ग के लिए न्याय हेतु "सत्यशोधक समाज" की स्थापना की इस संस्था का मुख्य उद्देश्य पिछड़ी दलित जातियों को शोषण से मुक्त कराने का था। कोल्हापुर के शासक साहू जी महाराज ने इस संस्था की तन मन धन से मदद की थी। इस संस्था की कई मान्यताएं थी -धर्म ग्रंथ प्रमाण नहीं है। कोई भी ग्रंथ ईश्वर निर्मित नहीं है। कोई भी मनुष्य जाति के आधार पर श्रेष्ठ नहीं है बल्कि गुण के आधार पर श्रेष्ठ है। भक्त और भगवान के बीच बिचौलियों की आवश्यकता नहीं है। धार्मिक गुलामी को खत्म करना सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा उपलब्ध कराना।धार्मिक और जाति आधारित उत्पीड़न से मुक्ति दिलाना । बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराना आदि प्रमुख बिंदु थे।

उन्होंने चतुर्वर्णीय जाति व्यवस्था का बहिष्कार किया । उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया।

उनकी बेहतरीन कार्यों को देखते हुए तथा बदलते हुए समाज के कारण कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगा और उनको मारने का षड्यंत्र रचा।धोडीराम और धोड़ीबा नामक दो अछूत वर्ग के गरीब लड़कों को 1000 ₹ का लालच देकर हत्या करने के लिए भेजा किंतु रात्रि में वे जाग गए । पूछा कौन हो? तुम लोग यहां क्या करने आए हो ? उन्होंने कहा कि हम तुम्हें मारने के लिए आए हैं। तब उन्होंने प्रश्न किया कि मारने के लिए तुम्हें कितने पैसे दिए गए। तब उन्होंने कहां की एक हजार रुपया मिला है। ज्योतिबा फुले ने कहा कि मेरे मरने से तुम्हारा भला होता हो तो इस हजार रुपए से तुम्हारे बच्चों को जरुर पढ़ाना। इतना कहने पर उनका दिल पिघल गया और वह दोनों ज्योतिबा के परम शिष्य बन गए।

1873 में उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'गुलामगिरी' का प्रकाशन हुआ। आज भी यह पुस्तक प्रासंगिक है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री छगन भुजबलजी ने मुंबई में इस पुस्तक को भेंट किया था।

 वे अपनी पुस्तक किसान का कोड़ा में लिखते हैं, कहते है-

"विद्या बिना मती गई

 मती बिना गति गई

गति बिना नीति गई 

नीति बिना संपत्ति गई

संपत्ति बिना शुद्र पतित हुए

इतना सारा घोर अनर्थ,

मात्र अविद्या के कारण हुआ।"

ऐसी महान आत्मा महात्मा ज्योतिराव फुले ने जुलाई 1888 में अपना शरीर छोड़ दिया। वे एक महामानव,मानवता के पुजारी न्यायशील, प्रेरक कर्मठ तथा बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी महान समाज सुधारक ,बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।वे आज भी प्रासंगिक हैं। आदर्श कार्यों से वे जनमानस के दिलों में जिंदा है।अमर हैं।

भारत सरकार द्वारा उन्हें भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए।


-डॉ. कान्ति लाल यादव

युवा समाजसेवी एवं साहित्य सेवी

मोबाइल- 8955560773

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