मन की चंचलता

एक बार गुरुकुल में एक नया शिष्य आया। आश्रम के नियमानुसार उसे भी प्रतिदिन संध्या – उपासना करनी होती थी। ध्यान संध्या का अभिन्न अंग है  लेकिन नये शिष्य का ध्यान बिलकुल नहीं लगता था।

कुछ दिन तो वह जबरदस्ती आंखे बंद करके बैठा रहा लेकिन अंततः एक दिन उसके सब्र का बांध टूट गया । वह तुरंत उठकर अपने गुरुदेव के पास गया और बोला – “ गुरुदेव ! ये संध्या में ध्यान की क्या आवश्यकता है ? 

गुरुदेव बोले – “ वत्स ! ध्यान मन को साधने के लिए अनिवार्य है ।”

शिष्य बोला – “ किन्तु गुरुदेव ! क्या मन को साधना जरुरी है? मेरा मन तो ध्यान में बिलकुल नहीं लगता ”

गुरुदेव बोले – “ मन को साधना इसलिए जरुरी है क्योंकि मन चंचल है । चंचल मन से किसी भी कार्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता इसलिए मन की चंचलता पर काबू पाना जरुरी है।”

शिष्य बोला – “किन्तु गुरुदेव! मन चंचल क्यों है?” शिष्य का प्रश्न सहज था किन्तु उसका उत्तर उतना सरल नहीं था। वास्तव में इस एक ही प्रश्न में सम्पूर्ण योग का सार छुपा हुआ है ।

गुरुदेव बोले –“एक बात बताओ! जिस मनुष्य के पास रहने के का कोई ठिकाना न हो, वह क्या करेंगा?”

शिष्य बोला –“ गुरुदेव! दर–दर भटकता फिरेगा, जब तक की उसे रहने के कोई ठिकाना नहीं मिल जाता।”

गुरुदेव बोले –“बस यही कारण है कि मन चंचल है। मन चंचल इसीलिए है, क्योंकि उसके पास ठहरने के कोई स्थाई ठिकाना नहीं। कोई ऐसी जगह नहीं, जहाँ उसे असीम और अनंत आनंद की अनुभूति हो सके । जहाँ पहुँचकर उसे कहीं और पहुँचने की आवश्यकता न हो। ऐसा स्थान केवल एक ही है और वह है – परम आनंद  "

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