काफी अरसे बाद...!

एक दिन गाँव मे ...



प्रकाश शुक्ला

"आज फिर काफी अरसे बाद मै शहर से अपने गाँव पहुंचा हूँ ,पहुँचने मे ही रात हो गयी थी तो हम पहुँचते ही अपने बिस्तर मे लेट गये और सो गये, गाँवो मे वो शहर जैसे एसी व बेडरूम नही होते पर वो खुली हवा मे खटिया(चारपाई) के चारो ओर खङे बांस के डण्डो मे बधी मसहरी (मछरदानी) मे सोने का कोई जवाब ही नही है, हॉ गाँव जहां सच में अभी थोडा सा अपनापन व स्नेह बचा हैं। 

गाँव जिसके मन्दिर के पास वाले तलाब अब भी कुमुदिनियो से भरें हैं। गाँव जिसकी मुडेरों पर अब भी पौरा के बने छप्पर है और उन छप्परों पर लौकी व तरोई की बेलों के फूल लटकते मिल जाते है। गाँव जिसके घरों की चौखट पर अब भी गेरू और गोबर से सजी हैं। गाँव जिसके आरो में  अब भी सींक खोंसे गोवर्धन बैठें हैं। गाँव जहॉ अब भी थोडा सा स्नेह व अपनापन बचा रहा हैं।

गाँव जिसके बीचो बीच मे बने मन्दिर के घंटे व घंटियो की सुबह शाम आने वाली आवाजे मन व मस्तिष्क को सुकून देती है,उसी की आवाज से आज आंख खुली है,वैसे तो अब हमारे परिवार का कोई गाँव मे रहता नही है पर हमारे घर के सामने रहने वाली चाची ने बङे अपनेपन से कहा लल्ला कोई दिक्कत नही है इसे भी अपना घर समझो।

सुबह सुबह नीम की दातुन का वो कङवा स्वाद, आपके शरीर को दिन भर के लिये करेन्ट दे देता है। वो सुबह की शुद्ध दूध की स्टील की गिलसिया भर के चाय पीना आपकी शहर वाली मग वाली चाय पर भारी पड़ती है अब दोपहर अपने शबाब पर हैं . मैं साफ नीले आसमान के तले  कच्चे आंगन में एक पक्की कुर्सी पर बैठा हूँ .दीवाल के उस पास एक क्यारी में हरी धनिया बोई है और उसके चारो तरफ गेंदे के पेड़ लगें हैं। स्वाद और सुंगंध दोनों एक साथ घर में बिखर रहे हैं ।कुछ घंटे पहले ही लिपे अंगान की अपनी एक अलग आभा हैं . बहुत दिनों बाद हवा को महसूस नहीं किया  बल्कि सुन रहा हूॅ।.  

मैं बगल में बैठे अस्सी साला चाचा जी से

 "बाबा ! कईसे हो ? अब यही ठंढी मा घुटुवा तो खूब पीरात होई हे न ..? घर की महिलाएं मुंह में पल्लू दबा हंसती हैं।बातें चल निकलती हैं कुछ हंसी , कुछ दर्द , कुछ ख्वाहिशें और ढेर सारा अपनापन कटोरी भर चीनी मिली रबड़ी के रूप में परिवर्तित हो सामने आती हैं। मुंह की मिठास खत्म होने से पहले ही प्लाटिक चढ़े स्टील के कप में फिर से शुद्ध दूध की चाय सामने आ जाती है। ख़ुशी के मारे चाय में  चीनी चम्मच से नहीं अंजुली से डाली गयी हैं।

दोपहर बीत गयी हैंp . सूरज ढलने को हैं. गाँव के बाहर वाले विशाल जलाशय की सीढयों पर बैठा पानी में अठखेलियाँ करती  मछलियाँ कुछ संदेश देती सी लगती हैं .तालाब के  किनारे पर बने नागर शैली के विशाल शिवालय का प्रतिबिम्ब पानी तैरता हुआ सवाल करता हैं। कब तक यूँ ही तैरते रहोगे? कब तलाशोगे खुद को?

अब लौटना होगा, रात में एक मुलाक़ात के लिए वक्त दे रखा हैं। मन एक दिन के लिए और यही रुकना चाहता हैं।और मन अंतिम पल तक के लिए पर अब लौटना होगा . 

.. और उसी नदी किनारे के बाग़ से लगी सड़क  से एक गाड़ी  तेजी से शहर की तरफ भागी जा रही हैं एक बोझिल दुनियां के मेले का हिस्सा बनने के लिए।

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