चकरे पे चकरे खिलाता हूं..
व्यंग्य कविता
किशन सनमुख़दास भावनानी
जनता सयानी है तो मैं.
उनसे अधिक देढ़ सयाना हूं.
घूसखोरी में बहुत माहिर हूं.
चकरे पे चकरे खिलाता हूं.
जनता के जेब से पैसे निकालने में माहिर हूं.
पहले काम है का बहाना बनाता हूं.
बड़े साहब का नाम धौंस बीच में लाता हूं.
चकरे पे चकरे खिलाता हूं.
ऊपर देने के नाम पर रेट खुलासा करता हूं.
साहबों की धौंस बहुत बताता हूं.
उनकी मिलीभगत के किस्से सुनाता हूं.
चकरे पे चकरे खिलाता हूं.
फाइल साहब के पास है ऐसा बताता हूं.
मैं तो छोटा आदमी हूं मज़बूरी बताता हूं.
साहब के नाम पर लेकर खुद डकारता हूं.
चकरे पे चकरे खिलाता हूं.
चकरे खिलाने का माइना धीरे से बताता हूं.
जेब ढीली करो इशारा करता हूं.
ऊपर हिस्सा देने की बात समझाता हूं.
चकरे पे चकरे खिलाता हूं.
जिसने दे दिया उनका काम फटाफट करता हूं.
जिसने नहीं दिया फाइल ऊपर अटकी बताता हूं.
घूस दे दिया तो काम करता हूं नहीं तो.
चकरे पे चकरे खिलाता हूं..
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