न्याय और फैसले के बीच का अंतर
- यदि भारतीय संविधान की मूल भावना समझना चाहते हो तो इस फैसले को पढ़े!
- दरअसल भारतीय संविधान लिखने वाले भी ऐसा ही सोचकर लिखे थे..
- लेकिन लागू करने वालों ने उल्टे तरीके से लागू किया!
Wonderful example to differentiate Judgement and Justice
जज "फ्रैंक कैप्रियो" अजीबोगरीब फैसले के लिये जाने जाते है...
एक बार एक 15 वर्षीय संदिग्ध मैक्सिकन लड़का था। जो दुकान से चोरी करते पकड़ा गया। पकड़े जाने पर उसने गार्ड की पकड़ से भागने की कोशिश की। यहां तक कि प्रतिरोध के दौरान दुकान का एक शेल्फ भी टूट गया था।
जज ने अपराध सुना और लड़के से पूछा "तुमने वास्तव में कुछ चुरा लिया?"
"रोटी और पनीर पैकेट" लड़का स्वीकार करता है।
" क्यों?"
"मुझे चाहिए" लड़के ने छोटा जवाब दिया।
"ख़रीद लेते.."
"पैसा नहीं था"
"परिवार से ले लेते.."
"घर पर केवल माँ है, बीमार और बेरोज़गार। रोटी और पनीर उसके लिए चुराई थी”
"आप कुछ भी नहीं करते हैं?"
"एक कार वाश करता था। माँ की देखभाल के लिए एक दिन की छुट्टी ली तो निकाल दिया”
"आपने किसी से मदद मांगी होगी"
"सुबह से मांग रहा था। किसी ने मदद नहीं की"
सुनवाई ख़त्म हुई और जज फैसला सुनाने लगा।
चोरी और विशेष रूप से रोटी की चोरी बहुत भयानक अपराध है। और इस अपराध के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। अदालत में हर कोई, मेरे सहित इस चोरी का दोषी है। मैं यहाँ मौजूद हर शख्स पर और अपने आप पर 10 डॉलर का जुर्माना चार्ज करता हूँ।
दस डॉलर का भुगतान किए बिना कोई भी कोर्ट से बाहर नहीं जा सकता, जज ने अपनी जेब से $10 निकाल कर टेबल पर रख दिया।
"न्याय और फैसले के बीच का अंतर"?
"इसके अलावा मैं स्टोर और प्रशासन पर $1000 का जुर्माना लगाता हूँ कि इन्होने एक भूखे बच्चे से गैर-मानवी व्यवहार किया और इसे पुलिस के हवाले कर दिया। अगर 24 घंटे में जुर्माना नहीं जमा हुआ तो कोर्ट को वो दुकान सील करने का आदेश देना होगा।
फैसला के आख़िरी रिमार्क थे "स्टोर, प्रशासन और दर्शकों पर जुर्माने की रकम लडके को अदा करते हुए अदालत इससे माफी मांगती है..”
फैसला सुनकर दर्शक अश्कबार थे, लड़के की तो हिचकियां निकल रही थी और वह जज को बार-बार फ़रिश्ता फ़रिश्ता कहकर बुला रहा था।
जज फ्रेंक केप्रियो के अनुसार समाज का कोई भी व्यक्ति पूरे समाज का प्रतिबिंब है/आयना है.
अगर बहुत सूक्ष्म द्रष्टिकोण से देखेंगे तो समझ में आएगा कि कोई भी व्यक्ति जैसा भी है या जो कुछ भी करता है उसके मूल में समाज ही कारणभूत होता है. समाज किसी भी व्यक्ति का मा-बाप/अभिभावक समान है. इस रुप में कोई भी व्यक्ति अगर कुछ भी गलत करता है/गुनाह करता है तो इसकी सबसे पहली जिम्मेदारी समाज की बनती है की समाज ने ऐसी कैसी व्यवस्था खडी की जिससे इस प्रकार की मानसिकता वाले बच्चें/युवां पैदा हुए, इस प्रकार के अपराधी पैदा हो रहे है?
ऐसी स्थिति में केवल अपराधियों को सजा दे देने से या अपराधियों को खत्म कर देने से गुनाह खत्म नहीं होंगे.(जो आज हम देख ही रहे है) इसके लिए समाज को खुद को भी जिम्मेदारी लेनी होगी,
समाज को स्वयं में झांकना होगा कि स्वस्थ-तंदुरुस्त समाज-व्यवस्था तैयार करने में हमसे ऐसी क्या चूक हो गई/ऐसी क्या कमी रह गई कि जिससे ऐसे अपराधीओं तैयार हुए और पूरे समाज को इस चूक/कमी पर काम करना होगा.
समाज को अपनी व्यवस्था में सुधार करना होगा, सकारात्मक बदलाव लाना होगा जिससे कि आगे से ऐसे गुनहगार तैयार न हो, ऐसी अनिच्छनीय-अमानवीय घटना न घटे. "यहि असली न्याय है". केवल अपराधियों को सजा दे दे, खत्म कर दे लेकिन समाज अपने में, अपनी समाज-व्यवस्था में कोई सुधार/बदलाव नहीं लाए तो इस को "न्याय" नहीं कहेंगे, केवल फैसला कहेंगे. फैसले से जनता का कोई भला नहीं होता.
जनता "न्याय" चाहती है फैसले नहीं. फैसले से गुनहगार खत्म होते है, गुनाह नहीं-गुनाहित मानसिकता नहीं. जबकि जनता गुनाह-गुनाहित मानसिकता को खत्म देखना चाहती है.
आगे से ऐसी कोई अनिच्छनीय-अमानवीय घटना ही न घटे ये चाहती है. और समाज के द्वारा ऐसी सामाजिक-व्यवस्था खडी करना ही सही "न्याय" है, असली "न्याय" है.
- आप खूद ही जांचिए की आप को न्याय चाहिए या फैसले?
- और
- अभी जो हो रहे है वो न्याय है या फ़ैसले?
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