मानव अपना विनाश करने पर अडिग?
साढ़े पांच/छह फुट का मानव दो-तीन मिलीमीटर के चिप्स का शीघ्र गुलाम बनेगा..!
मेरा पुश्तैनी गांव घोघना एक पिता द्वारा बसाया हुआ गांव था। आज के शिक्षित, अतिशिक्षित माता पिता अपने बच्चों के लिए एकाध घर या प्लाट खरीदते हैं, लेकिन कोई डेढ़ दो सौ साल पहले एक पिता ने अपने दो बेटों, तथा उसके भावी बच्चों के लिए पूरा गांव बसाया था।
यह तब और आज के पिता की औकात और दृष्टि में आया फर्क है। उस गांव में प्रशस्त घर, घर के चारो तरफ प्रशस्त जगह, दो दो मंदिर, मेला लगाने की जगह, खेलने की जगह, जल व्यवस्थापन की जगह, आवागमन के लिए जगह आदि आदि सब कुछ था। आज का शिक्षित समाज मच्छर मारने के लिए सरकार के समक्ष भिक्षाटन करता है, तब का मुश्किल से अक्षर ज्ञान प्राप्त स्वावलंबी तथा स्वपोषित समाज था।
यह इतिहास के पन्नों से नहीं, अपने जीवन के अनुभव से कह रहा हूं। अपने गांव से शहर की परावलंबी जीवन स्वीकार करने वाले मेरे पिताजी संभवतः पहले व्यक्ति थे, अब तो अधिकतर हो गए हैं। इसलिए शहर से हम बच्चें जब गांव लौटते थे, तब मन में आधुनिक, शहरी अहंकार ले कर आते थे और गांव में रह रहे बच्चों के प्रति उनके पीछड़ा होने का भाव रहता था।
एक घटना शायद 1964 या 1965 की है। एक दिन अपने एक हम उम्र अजीज जो रिश्ते में चाचा लगता था तथा एक अनुज को लेकर 2 कोस, यानी 4 किलोमीटर दूर बाजार में चुपके चुपके मिठाई खाने चले गए।
हम घर के अभिभावकों से बिना अनुमति लिए छुप कर गए थे। इसलिए इसे गुप्त रखने की हमारी कोशिश थी। लेकिन तब पालक अपनी संस्कृति के उल्लंघन के मामलों में बड़े सजग रहा करते थे। हम तीनों ने जम कर मिठाई खाई, और आधुनिकता का दंभ लिए शाम होने से पहले गांव लौटे थे।
यहां गांव में हम तीन में से दो के श्रेष्ठ अभिभावक यानी दादा जी तक अन्य जरिए से हमारे बाजार पहुंचने की खबर पहुच गई थी। तब न मोबाइल शब्द पता था और न ही आसपास के गांव में फ़ोन था। सबसे तेज वाहन सायकल हुआ करती थी। हमारा गांव संयुक्त परिवार का नमूना था, जहां सब बट गया था लेकिन रिश्ते मौजूद और मजबूत थे।
जब मैं अपने घर लौटा तो देखा कि दादा जी, मेरे साथ गए अनुज के दादा जी के साथ बाहर चहलकदमी कर रहे हैं और दादी थोड़ा दूर आंगन के प्रवेश द्वार पर चुपचाप खड़ी थीं। वे थोड़ा भयभीत थीं। मुझे आते देख मेरे दादा जी चुपचाप खड़े हो गए तथा उनका अनुजवत, हमारे दूसरे दादाजी मेरी ओर लपके, मेरा कान पकड़कर अपनी ओर खींचा और जोर से तड़ातड़ तीन चार चांटे जड़ दिए।
मैं चुपचाप आंखें नीचे किए खड़ा रहा। दूर खड़ी मेरी प्यारी दादी भी अपनी जगह से नहीं हिलीं। मेरे प्यारे, पूज्यनीय दादाजी ने अपने अनुज की कृति को सही कहा। मुझे तड़ातड़ थप्पड़ लगाने वाले दूसरे दादाजी ने मेरे दादा जी से अपनी वेदना प्रकट करते हुए कहा था कि अब गांव का विनाश अटल है। अब गांव का पैसा शहर में खर्च होने लगा है।
हमलोग शहर जाते समय घर से खाने की चीज ले कर जाया करते थे।अब गांव से शहर खाने जाना शुरू हो गया है। तब उनकी वेदना समझ नहीं पाया था। अब जब शहर के अधिकांश घरों में खाना बनना लगभग बंद हो गया है, घर का हर सदस्य दिन रात कमाई करने के बाद भी समाधानी तथा संतोषी नहीं है, घर में खाना कम और दवा बढ़ती गई है, रिश्ते उत्सव तक सीमित हो गए हैं, तब तकरीबन 57 साल पहले मुझे लगा थप्पड़ की याद बारंबार आती है।
अब तो पैर के नाखून से लेकर सर के बाल तक बाजार छा गया है, पेट का गैस और गले का डकार बुझाने तक बाजार छा गया है, पहले साल में एकाध बार लगने वाला मेला ही बाजार था, अब हाथ में छह इंच का मोबाइल ही बाजार, पुस्तकालय, डाकखाना, थिएटर, झगड़ा-मंच बन गया है।
साढ़े पांच फुट का मानव इस छह इंच में गोता लगाने में मग्न हैं। कुछ दिन पहले बिल गेट्स के नाम से एक बयान पढ़ा का 2030 तक आज का स्मार्टफोन गायब हो जाएगा। हमारे अंगों में चिप्स होगा। बस हम साढ़े पांच फुटिया मानव, एक-दो मिली मीटर के चिप्स के गुलाम होंगे।
एक आदमी था, सिर्फ एक, सिर्फ एक आदमी, बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी। उसने 1909 में हमें सावधान किया था कि आधुनिक सभ्यता शैतानी सभ्यता है। इससे आज मुक्त नहीं हुए तो कल हम इसके गुलाम होंगे। इसी दूरदर्शी ने 24 दिसंबर 1916 में कहा था कि अमरीका पूरी दुनिया का दुश्मन है । हमारे भारतीय भाई और बहन अमरीकी पद्धति से संपत्ति कमाने का खयाल त्याग दें।
हमने उनकी नहीं सुनी। हमने उनकी हत्या की, या बुराई की या फ़ोटो फ्रेम में उनको जकड़ दिया। अब 8-10 साल बाद शिक्षित मानव अल्बर्ट आइंस्टीन की बात को याद करते आंसू बहायेगा कि "आने वाली पीढ़ी को शायद ही यकीं हो कि हाड़ मांस का ऐसा पुतला इस धरती पर कभी चला था"।
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