मानव सहज-अपेक्षा स्वतन्त्र रहने की है.

संबंधों में सामरस्यता ही स्वतंत्रता का स्वरूप है.

मानव-परम्परा में जो कुछ भी भौतिक वस्तुओं की "प्राप्तियां" हुई वे "सुखी होने" के लिए प्रयत्न करने के क्रम में ही हुई। वस्तुओं से "सुखी" होने के अर्थ में प्रयत्न करते-करते "सुविधा" और "संग्रह" पूर्वक सुरक्षित होने की अपेक्षा निर्मित हुई। यह क्रमागत विधि से घटित हुआ।

सुविधा-संग्रह विधि से प्रयत्न करने पर मनुष्य को उसका "तृप्ति-बिन्दु" मिला नहीं। लेकिन तृप्ति-बिन्दु मिल सकता है, इसकी "सम्भावना" लगती रही।

सबको सुविधा-संग्रह समान रूप से नहीं मिल सकता। इस विधि से मानव शंका-कुशंका की ओर चला। इस तरह चलते-चलते "अकेलेपन" में रह गया, या "व्यक्तिवादिता" में रह गया। व्यक्तिवादिता का फल-परिणाम है - भय से पीड़ित रहना, शंकाओं और समस्याओं से घिरे रहना, दूसरों के लिए पीड़ा पैदा करना। स्वयं के लिए संग्रह होना अपने आप में इस बात का प्रमाण है - दूसरे के लिए हानि होना। यह बहुत पहले से ही मानव को विदित है - किसी का लाभ होने से दूसरे का हानि होता ही है। यह वैसे ही है - एक जगह मिट्टी इकठ्ठा होने के लिए दूसरी जगह गड्ढा होता ही है।

मानव बहुत पहले से ही "लाभ-हानि मुक्त" विधि से जीने की इच्छा व्यक्त किया है। इस इच्छा को व्यक्त करना बहुत सारे यति, सती, संत, तपस्वियों में देखने को मिला है। मानव अपनी परिभाषा की ही व्याख्या करता रहता है। मानव में "अनेकता" का प्रकट होने का प्रयोजन "एकता-सहज आवश्यकता" का कारण हुआ।

२१वी सदी तक हर मानव, अथवा मानव-परम्परा जीव-चेतना विधि से सुखी होने के लिए प्रयत्न किया। इस क्रम में आकाश में घूम लिया, समुद्र के तल पर घूम लिया, धरती की सतह तो घूमा ही। इसी क्रम में हर देश दूसरे देशों के रवैय्ये को अध्ययन करने के योग्य हुआ। लेकिन जीव-चेतना से सारे अध्ययन-प्रयास जीव-चेतना स्थली में ही सिमटता रहा। इसकी गवाही है - लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, और कामोन्मादी सोच-विचार और कार्य-व्यवहार में मानव-परम्परा का व्यस्त रहना। इसी क्रम में ज्यादा संग्रह से ज्यादा व्यस्तता में ग्रसित रहना देखा जा रहा है।

मानव सहज-अपेक्षा स्वतन्त्र रहने की है। जीव-चेतना में "मनमानी विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है। मानव-चेतना में "समाधान समृद्धि अभय सह अस्तित्व विधि" से स्वतंत्रता की वकालत होती है।

"मनमानी विधि" से सम्पूर्ण प्रकार के गलती, अपराध, अनाचार, दुराचार, अत्याचार होना देखा जाता है। इस विधि से अपराधों का प्रचार, अपराध करने के लिए अध्ययन, और अपराध करने के लिए अवसर पैदा करने वाला व्यक्ति अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है, ऐसा देश अपने को "ज्यादा विकसित" मानता है। "मनमानी विधि" से भिन्न रूप में यदि देखना चाहते हैं, तो "मानव की मानसिकता" पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

मानव की मानसिकता पर ध्यान देने पर पता चलता है - हर मानव सर्वाधिक भागों में "सहीपन" को, "सार्थकता" को, "सत्यता" को, और "समाधान" को चाहता है। लेकिन परम्पराएं - धर्म-परम्परा, शिक्षा-परम्परा, व्यापार-परम्परा - सभी एक से एक घोर विपदा की ओर गतिशील हैं। व्यक्ति को प्रचलित-परम्परा से जो मिलता है, वह उसका अनुसरण-अनुकरण करने के लिए विवश होना पाया जाता है।

विज्ञानवादी सोच जब उदय हुई - तो लोगों ने उससे विपन्नता और नासमझी से मुक्त होने की सम्भावना को स्वीकारा। लेकिन घटना उसके विपरीत हुई। विज्ञान विधि से सर्वाधिक मानव प्रयोग विधि से, प्रक्रिया विधि से अपराध कार्य में ही भागीदारी किए। कुछ लोग भागीदारी किए, बाकी लोग उससे सहमत रहे। कुल मिला कर विज्ञानं से मानव की अपेक्षा और विज्ञान-गतिविधियों के फल-परिणाम में विपरीतता दिखती है। विज्ञान-तंत्र के प्रभाव से मानव कोई सकारात्मक उपलब्धियों को परम्परा के रूप में पाया नहीं - इसके विपरीत, प्रदूषण और धरती बीमार होना ७०० करोड़ आदमियों के लिए "गले की फांसी" बन चुकी।

दो प्रकार की विचारधाराएं (आदर्शवादी और भौतिकवादी) जो मानव-परम्परा में प्रभावित हुई - उनसे फल-परिणाम में सुख-शान्ति की स्थली में पहुँचने के विपरीत अशांति और समस्याओं से घिर गए। स्वतंत्रता की अपेक्षा मानव में सहज है। इसी अपेक्षा-क्रम में मानव समझदारी पूर्वक हर सम्बन्ध के प्रयोजन को पहचान पाता है, फल-स्वरूप मूल्यों का निर्वाह होता है।

टिप्पणियाँ