बिकता है!
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता"
कुछ भी खरीद लो बाज़ार बिकता है
यहाँ अब तो सरेआम प्यार बिकता है
लोग दोस्ती भी दिमाग से करते हैं
समाज में बनावटी व्यवहार बिकता है
मानवीय मूल्यों को कोई नहीं पूछता
उसूलों का खरा जैसे भंगार बिकता है
कुछ मतलबपरस्त सी हो गयी दुनिया
रिश्तों में भी अब व्यापार बिकता है
जो बदलना पड़े जायका ज़ुबान का
दर चलते सरेराह अचार बिकता है
खामोशी की कीमत कुछ नहीं बची
अबतो झूठा शौर अपार बिकता है
जाने यों भौतिकता में डूबती कश्ती
उदारवाद अब कहाँ उधार बिकता है
सच का सबूत अब कहाँ बचा "उड़ता"
ढूंढो फर्जी गवाह हजार बिकता है
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