गौ रक्षा के लिये उठाना होगा उचित कदम -अखिलेश अवस्थी
ब्राम्हण और गाय दोनों को निकाल कर सनातन संस्कृति क्या बचती है। नारायण को इनके लिए अवतार लेने पड़ते रहे हैं। गाय जितने संकट में आज है क्या और भी कभी रही होगी। हमने जितना पढ़ा,जाना और समझा है वो तो यही बताता है कि संत्रासो का पराकाष्ठा काल है। ब्राम्हण उससे कम संकट में है। कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि दोनों के संकटों का उत्तरदाई ब्राम्हण है। हम जिन भगवान परशुराम की जय बोल कर उनके वंशज होने पर स्वयं इतरा लेते हैं क्या उन्हें गोवंश की दैन्यता में हमारा आचरण व्यवहार कष्टकारी नहीं लगता होगा।
हम वैवाहिक समारोह, उपनयन संस्कार भर करा के ब्राम्हण बने बैठे हैं। फतवे जारी करने वालों में शामिल हो गए। ब्राम्हण संगठन बनाने वाले लोग इस कुल को वर्षों से सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के नाम पर ठगते आ रहे हैं। इस प्रक्रिया में व्यक्तियों की सूरतें,सीरतें बदलने के तमाम उदाहरण हैं, ब्राम्हण जाति लगातार गिरती ही गई है। ब्राम्हण के पतन का सिलसिला कुल के पतित ठेकेदारों के रहते रुकने वाला भी नहीं। ब्राह्मण जाति नहीं विचारधारा है।
अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का नाम ब्राम्हण है। अत्याचार से जूझ जाने में स्वयं के अस्तित्व को मिटा देना जिसे अपना गौरव प्रतीत हो वो ब्राम्हण है। कोई ब्राम्हण पुत्र त्राहि त्राहि करती गाय के लिए अपने प्राण न्योछावर करने को बढ़ा हो और नपुंसकों की भीड़ से आवाजें उठाई जा रही हों कि राजनैतिक महत्वाकांक्षा है और समस्त कुल मौन हो तो है तो घनघोर संकट। ऋषि जमदग्नि सहस्रार्जुन का अन्याय बर्दाश्त कर गए होते तो परशुराम कभी होते ही न। हारना बुरा नहीं होता। बुरा हार मान लेना होता है। जीत सुनिश्चित में युद्ध लड़ना वीरता नहीं,हार सामने खड़ी हो और लड़ते लड़ते मृत्यु का वरण करना जिसका लक्ष्य बन चुका हो उसे गोवंश की वेदनाओं में मरने देना या मरने से बचाने का धर्म संकट समस्त कुल को पुकार रहा है।
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