एक विधवा को आज भी जीने का हक नही?

स्नेहा दुधरेजीया 

पोरबंदर गुजरात। विधवा शब्द सुनने में थोडा अजीब लगता है, तो ये समाज क्यों नही सोचता कि जो रोज ये शब्द सुनते है उस पर क्या बीतती होगी? कहते है कि, नारी से ही जीवन है। नारी के बिना कोई अस्तित्व नही है तो ये सारी बाते किसी के विधवा होने पर क्यों बेबुनियाद हो जाती हे। 

अगर कोई इंसान पैदा होता है या उसकी मृत्यु होती है, ये सब किसी इंसान के हाथ मे नही होता है। उसी तरह विधवा होना क्या किसी नारी के  हाथ मे होता है? नही ना तो क्यों हम उनके साथ हीनता भरा वर्ताव क्यों करते है?

आज के दौर में कई लोग इस बात की दुहाई देते हैं कि, आज लड़कियां किसी से कम नहीं वो मर्दों की तरह ही सब काम करती हैं, वो आजाद हैं लेकिन जब बलात्कार या शोषण जैसी घटनाएं सामने आती हैं तब ये सब बातें बेमतलब सी लगती हैं। 

विवाहित हो या अविवाहित, स्त्री को हमेशा पुरुष के साथ की जरुरत महसूस करवाई जाती है , और जब किसी कारण से पुरुष का साथ उससे छूट जाता है तो महिलाओं को जिन हालातों का सामना करना पड़ता है वह बद से बदतर  होने लगता हैं? या ये कहे कि औरत होना एक बद् दुआ सा लगने लगता है। रंगीन दुनियां बेरंग सी हो जाती है। जिंदगी तो होती है पर जीते जी एक लाश कि तरह जीना पड़ता है। 

आज कल महिलाओं को सम्मान दिलवाने की बातें तो की जाती है, नारीवादी, उनके स्वतंत्र जीवन की भी पहल होती है, लेकिन हकीकत की धरातल पर ऐसा नही होता है। 

अगर ऐसा होता तो आज ‘विधवाएं’ किसी आश्रम में अपने मरने का इंतजार ना करतीं, बल्कि वो भी अपनी जिंदगी अपने ढंग से अपनी मर्जी से जीतीं। जबकि सच ये है कि, उन्हें समाज द्वारा कड़े बंधनों में बांधकर रखा गया है? 

आज भी पति की मृत्यु के बाद महिलाओं को किन-किन हालातों का सामना करना पड़ता है और समाज मे कई बार मरकर भी जीना पड़ता है। ये बात सिर्फ आश्रम तक सीमित नही है अगर आप के आसपास कोई विधवा स्त्री है तो उसका भी वही हाल है। 

जिंदगी अपनी मर्जी से नही सबकी मर्जी से जीनी पडती है। तब कहा जाती है वो खोखली और बेबुनियाद बाते स्त्री का सम्मान उसकी स्वतंत्रता कोई मायने ही नही रखता है, आप ही बताओ क्या ये सही है?

कहते हैं कि, दुनिया को शास्त्रों, धर्मों और रीति-रिवाजों में बांधा गया है, जिन्हें कुछ लोग बेहद अहमियत देते हैं और कुछ इन्हें फिजूल भी मानते हैं। ये तो अपनी-अपनी सोच है, लेकिन विधवाओं के बारे  में बात की जाए तो शास्त्र ही नहीं कुछ वैज्ञानिक कारणों से भी उनके साधारण तरीके से जीने की बात कही गई है।

एक विधवा के सफेद वस्त्र पहनने के पीछे का सबसे बड़ा कारण यह है कि, सफेद रंग आत्मविश्वास और बल प्रदान करता है ,व कठिन से कठिन समय को पार करने में सहायक बनता है। इसके साथ ही सफेद वस्त्र विधवा स्त्री को प्रभु में अपना ध्यान लगाने में मदद करता हैं। 

सफेद कपड़ा पहनने से मन शांत रहता है। उनके पहनावे के साथ उनके  खाने-पीने में रोक-टोक करने के भी वैज्ञानिक कारण हैं, जैसे कि लहसुन-प्याज वाला खाना खाने से दैहिक ताप और काम भावना बढ़ती है। सबसे ठोस कारण यह है कि पति की मृत्यु के बाद सरल भोजन करने से मन शांत रहता है तथा किसी भी प्रकार की इच्छा व्यक्त नहीं होती।

आज के समय में लोग इन सभी सामाजिक मान्यताओं से परे अपनी जिंदगी जीते हैं व इनमें काफी कम विश्वास करते हैं। लोगों की सोच में कुछ बदलाव आ रहा है और अब तो विधवा स्त्रियां भी रंगीन वस्त्र पहनने लगी हैं। 

उनके घर वाले उन्हें समझते हैं और उन्हें अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करते हैं खासतौर पर उनकी जिंदगी जो स्त्रियां काफी कम उम्र में विधवा हो जाती हैं, लेकिन क्या समाज इस बात को अपनाता है?

यह समाज एक विधवा को पुराने परम्परागत नियम में ही बधां देखना चाहता है,एक विधवा का हँसना  बोलना रंगीन वस्त्र पहनना पंसद नही करता है। पति कि मृत्यु के साथ उसके अंदर का ईश्वर भी उसे छोड देता है? या उसे जीने का हक नही? किसी न किसी वजह से ये समाज इन विधवाओं को उनके पति के मरने का बोध कराता रहता है। कभी सफेद वस्त्र पहना कर तो कभी दुत्कार कर। 

उनकी जिंदगी बेरंग बना दी जाती है और उनसे उनके सारे हक छीन लिए जाते हैं। जो व्यक्ति अब इस दुनिया में नहीं रहा उसे याद कर के पूरी जिंदगी बीतानी है, ये पाठ पढ़ाया जाता है। बेबस स्त्री अभी अपने पति की मृत्यु से उभरी भी नहीं होती कि उसे सारी दुनिया अजीब दृष्टी से देखने लगती है। उसे एक सेवक या फिर अतिरिक्त प्राणी की तरह समझा जाता है? जिसका अब इस दुनिया में रहने का कोई महत्व नहीं? 

आज भारत मे सती प्रथा तो खत्म हो गई हे लेकिन फिर भी जिस हालातों से एक विधवा औरत अपनी जिंदगी बीता रही है वो अग्नि में जलकर राख हो जाने से कम नहीं, यदि विश्वास नहीं होता तो एक बार किसी विधवा का हृदय खंगाल कर देख लीजिए।

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