कल्पतरु दिवस पर विशेष
झाबुआ मध्यप्रदेश ब्रह्मांड में सर्वप्रथम एककोशिकीय जीवो ने जन्म लिया तत्पश्चात बहुकोशिकीय जीव धरती पर आए और इसी प्रकार मोनेरा, कवक, प्रॉटिस्टा व पादप व जंतु जगत जो कि सबसे बड़ा जगत कहलाता हैं इन सबसे मिलकर एक पारितंत्र का निर्माण हुआ। ब्रह्मांड में मानव सबसे विकसित समाजिक जंतु के रूप में वनों से विकास करते हुए प्रकति से वेद व वेद से विज्ञान को निर्मित किया और आज अंतरिक्ष मे जीवन की संभावना को भी तलाश रहा है।
वैसे देखा जाए तो भारत ब्रह्मण्ड के सबसे प्राचीनतम देश मे आता हैं तभी तो वेदो से विज्ञान की उपज भी यही से हुई। इस प्रकार अगर देखा जाए तो मानव जाति अथार्त *होमोसेपियंस (मानव का वैज्ञानिक नाम)* पूरी पृथ्वी पर विभिन्नता से रह रहे बिल्कुल वैसे जैसे हमारा अपना एक परिवार। वैसे ही भारतीय विचार अनुसार विश्व मे हम सभी एक परिवार का रूप है। जहा सभी इंसान ही एक पृथ्वी रूपी आवास में निवास कर रहे है।
जैसे हर व्यक्ति की अपनी एक पहचान होती हैं लेकिन उसकी मुख्य पहचान उसके कुटुम्ब से जानी जाती हैं या कहे परिवार से..
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक इंसानियत *वैश्विक चिंतन* मानव जाति व इंसानियत के लिए स्वयं में सैकड़ो प्रश्न लिए खड़ा है। पृथ्वी पर इंसान कई संस्कृति व सभ्यता में अपनी अपनी जगह पर निवास कर रहा हैं जहाँ विचारणीय हैं जीवन जीने के लिए सभी को ऑक्सीजन व पानी की आवश्यकता होती हैं जो सभी जीवों के लिए भी जरूरी हैं फिर भी इंसान स्वयं को अलग अलग रूपो में तलाश रहा जो धर्मो के नाम पर अपनी संख्या बढ़ाना हो या मजहब के नाम पर जन्मदर में वृद्धि करना । जब भी में जीव विज्ञान पढ़ाती हु तो जनसँख्या का अध्ययन कराते समय कई बार विचार आता हैं कि *डेमोग्राफि* में जाति व मजहब के अनुसार जन्मदर मृत्युदर का वर्णन नही है।
वही आनुवंशिकी की बात करे तो पीढ़ी दर पीढ़ी गुणों का अध्ययन कहलाता हैं जो जीन्स द्वारा होता हैं जिनका अध्ययन डीएनए द्वारा सम्भव हैं जो कोशिका में होते है व डीएनए गुणसूत्रों में होते है।
मानव में गुणसूत्रों की कुलसँख्या 46 होतीं हैं अथार्त 23 जोडे ।नर मादा में 22 बराबर होते व एक या 23 वा गुणसूत्र ही लिंग निर्माण में सहायक होता हैं जिससे नर व मादा बनते है। ये हुई वैज्ञानिक तथ्य की विश्व के सभी मानव एक प्रकार की आन्तरिकी से बने है बस बाहरी रूप सबके अलग है। लेकिन यहां भी ये कई वर्णों व जातिगत आधार पर बँट बँट कर स्वयं के अस्तित्व के टुकड़े करते जा रहा है। वर्त्तमान में इंसानियत का महत्व सिक्को से सिक्को का वस्तु से वस्तु का व्यक्ति व व्यक्ति का विवेक से महत्व होता हैं लेकिन विभ्रमित इंसान सिक्को व वस्तु में इतना मगन हैं कि अपना असली स्वरूप खोता जा रहा। वह एक धर्म से दूसरे धर्म मे अपना अस्तित्व तलाश रहा बिल्कुल वैसे ही जैसे *रेगिस्तान में मृगमरीचिका* में जल की अनुभूति होना। स्थिति इतनी विकट कर दी कि सुख दुख को सिक्को व वस्तु में तलाश कर अपने विवेक को खोता जा रहा है । वही जहा धर्म हमे जिंदगी की सार्थक राह दिखाता हैं धर्म जीवन जीने की कला सिखाता हैं एक सुदृढ़ जीवनशैली के निर्माण में सहायता करता है जिसमे हमारा खान पान हमारी, संस्कृति, परिवेश सरलता व सहजता से हमारी प्रगति के रास्ते खोलती जाती हैं।
हम कई वर्षों से देखते आ रहे है हर बड़े धार्मिक स्थलों पर सैकड़ो विदेशी आकर निवास करते है व पूरा समय भजन पूजन व जप तप में देते है कुछ समय पूर्व मेरा भी पुष्कर जाना हुआ जहा हमने एक हफ्ता बिताया वहां कई विदेशी सैलानियों की भीड़ सतत बनी रहती थी। उन्ही में से कुछ महिलाओं से मित्रता हुई व चर्चा हुई मेने पूछा आप तो अलग रिलीजन से है, फिर हिन्दू धर्म के संस्कार का कैसे पालन कर रही व इसका कारण क्या है? उन्होंने कहा हमारी नजर में भारत भूमि पर जिन्होंने जन्म लिया वह बहुत भाग्यशाली है। अगर हम , सनातन धर्म संस्कृति का पालन करते है, तो हम मोक्ष को प्राप्त होंगे इन सबका पालन करते हुए अब हमें जप, तप, ध्यान में ही अब हमें आनन्द आता हैं।
इस तरह अध्यात्म पर काफी समय तक उनसे सत्संग चलता रहा और मेने जाना कि उन्होंने काफी कम समय मे ही हिंदी व सँस्कृत भाषा को बहुत अच्छे से सीख लिया। भगवतगीता में अध्याय व सन्दर्भ किस तरह जीवन के उद्देश्यों को सही मायनों में चरितार्थ करता हैं, उन्होंने मुझे बताया में विचार करने लगी जहा हम एक धर्म से संतुष्ट नही हो पा रहे व अन्य की और आकृष्ट होते जा रहे हैं। ऐसे में ना तो नीव मजबूत हो पा रही, ना ही दीवारों में जान, बस मकान दर मकान बनते जा रहे । मकान घर तब तक नही होता जब तक नही होता हैं । जब उसमे परिवार के सभी सदस्य सुख दुख को सांझा करते हुए हँसते खेलते जीवन व्यापन करते है।
आज जरूरत हैं इसी भाव से सृष्टि में इंसान से इंसानियत को अपनाने की जहा त्याग, सहनशीलता, धैर्य, विश्वास व प्रेम की आस्था से सब एक दूसरे से जुड़े हो।
जिम्मेदारी हमारी
अयँ निजं: परो वति गणना लघुचेतसाम
उदारचरितानाँतु वसुधैव कुटुँबकम
ये अपना, ये पराया, ये हमारा, ये तुम्हारा वाले लोग छोटी सोच को दर्शाते है। इसके विपरीत उदार चरित वाले लोग पूरी पृथ्वी को एक कुटुंब की तरह मानते है वैसे हमे भी सोचना होगा। यदि भारतीयता वृहद व आत्मसात योग्य है तो किसी अन्य संस्क्रति की और आकृष्ट होने की आवश्यकता नही है।
विश्व एक कुटुंब हैं हम सभी इंसान पूरी दुनिया की अंतिम इकाई हैं और भारतीयों की सांस्कृतिक परम्परा के परिवेश में परिवार अंतिम इकाई हैं जहां भारतीय परिवारों में परस्पर अवलंबन हैं यहां सुख दुख जन्म जन्म तक सांझे हैं इसे समझें और आत्मसात करे आज के दिन यही संकल्प ले।
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