जाति और धर्म को हथियार बनाकर राजनीति करना देश के हित के लिए घातक
सुनीता कुमारी, पूर्णियाँ, बिहार।हमारा देश धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र आजादी के बाद से नही बल्कि सदियों पहले से है। कई धर्म का भारत में आगमन और उसका जनता के बीच विलय कोई नई बात नही है ।हमारा देश आदिकाल से ही विविधताओ से भरा है। अलग-अलग राज्यों की अलग अलग संस्कृति है, वेशभूषा रहन-सहन खान-पान आदि सब अलग अलग है। अनेको जातियां एवं कई धर्मो का समावेश हमारे देश की पहचान है। विविधताओ से भरा यह रंग भारत की सबसे बड़ी विशेषता है। इन विविधताओ को भारत की आम जनता सहर्ष ही स्वीकार करती है। एक दूसरे की संस्कृति को स्वीकार करती है। एक दूसरे की परम्पराओं को मान देती है। इन विविधतापूर्ण जीवन एवं क्षेत्र से आम जनता को कोई दिक्कत या परेशानी नही है।
सदियों से एक ही गाँव में कई जातियां रहती आई है। किसी भी शहर के किसी क्षेत्र की बात की जाय तो एक साथ कई जातियों के साथ कई राज्यों के लोग भी एक साथ रहते है अलग-अलग धर्म के लोग भी पड़ोसी बनकर रहते है। हर विपरीत परिस्थित में एक दूसरे का साथ देते है।
भारत के हर छोटे शहर से लेकर महानगर तक यही समाजिक व्यवस्था है। समाज की इस शांतिपूर्ण व्यवस्था में खलल तब पड़ती है, जब कोई राजनीति से जुड़ा व्यक्ति अपना व्यक्तिगत एवं राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए जाति और धर्म को मोहरा बनाकर समाज में अस्थिरता पैदा करता हैं।
राजनीतिक स्वार्थ पूरा करने के लिए जातिगत एवम धार्मिक उन्माद फैलाता है। दो चार दस लोगो का सांप्रदायिक समूह दस लाख की आबादी पर हावी हो जाता है।
भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैं परंतु, आजादी के बाद भी राजनीति दलो द्वारा धर्म को ही मोहरा बनाकर राजनीति किया जा रहा है। जबकि भारत को आजादी धर्म के नाम पर उन्माद फैलाकर देश विभाजन की कीमत पर मिली है।
देश विभाजन के समय धार्मिक उन्माद में हजारों परिवारों एवं लाखों लोगों की जिंदगी की बलि चढ़ गयी। जहाँ एक ओर धार्मिक उन्माद फैला हुआ था, हिन्दु मुस्लिम दंगा भड़का हुआ था, वही सामाजिक स्तर पर कुछ हिन्दु मुसलमानो की मदद कर रहे थे कुछ मुसलमान हिन्दुओ की। ऐसे कई उदाहरण इस बात को साबित करती है। आम जनता को रोटी कपड़ा और मकान चाहिए। बेहतर शिक्षा और बेहतर रोजगार चाहिए। जीवन में तथा देश में राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता और विकास चाहिए। परंतु सत्ता के लोभ एवं पैसो की लालच ने लोगो को अंधा बना दिया है। सबसे ज्यादा दुःख की बात यही है कि,ऐसे ही लोग हमारे देश की राजनीति में भरे परे है।
25 मार्च 1931 को कानपुर में सांप्रदायिक हिंसा को शांत कराने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने अपने प्राणों की आहुति सांप्रदायिक उन्माद को शांत कराने में दे दी। उनका कहना था "हम ना हिंदू हैं और ना मुसलमान, मातृभूमि का कल्याण ही हमारा धर्म है, पंडित हो या मौलवी धर्म हो या कर्म मातृभूमि के हित के विरुद्ध हमें किसी की व्यवस्था मान्य नहीं हैं।
मातृभूमि का अपराधी चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान कोई भी हमारे तिरस्कार और उपेक्षा से भाग नहीं सकता है।
"भारत में कई ऐसे लोग हुए जिनके परिवार के सारे सदस्य संप्रदायिक हिंसा के शिकार हो गए परिवार उजड़ गया परंतु उनमें बदले की भावना का विकास नहीं हुआ। इतिहासकार विपिन चंद्र ने दिल्ली हिंदू कॉलेज के अपने एक छात्र का उदाहरण उपस्थित करते हुए लिखा है कि अपने सामने परिवार के प्रत्येक सदस्यों की हत्या देखने वाला छात्र धर्मनिरपेक्ष बना हुआ है, उस छात्र का तर्क है इस तरह की हत्याएं करने वाला ना तो हिंदू होता है और न मुसलमान वह केवल सांप्रदायिकता का उन्मादी होता है जिसके पास विवेक नाम की कोई वस्तु नहीं होती।
भारत आजादी से पहले भी धार्मिक उन्माद का शिकार रहा और आजादी के बाद भी धर्म और जाति एक ऐसा मुद्दा बना हुआ है जिसका फायदा उठाकर राजनीतिक पार्टियां राजनीति कर रही हैं ।उन्होंने देश के विभाजन के समय की त्रासदी को दरकिनार कर फिर से धर्म की राजनीति कर रहे हैं।
- देश को धर्म और जाति के नाम पर बांट रहे हैं..
- आम जनता चाहे वो हिन्दु हो या मुसलमान देश में अस्थिरता नहीं चाहती..
आम जनता देश में शांति और विकास चाहती है। रोजगार शिक्षा और व्यवसाय चाहती हैं। परंतु राजनीतिक पार्टी से जुड़े कुछ चंद नेता मात्र सत्ता सुख भोगने और पैसों की लालच में धर्म का इस्तेमाल कर देश को तोड़ने में लगे हुए हैं। जब देश धर्मनिरपेक्ष है तो देश के प्रत्येक राजनीतिक दल को भी एवं राजनीतिक दल से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को भी धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए ।धर्म शब्द का प्रयोग आम जनजीवन से दूर होना चाहिए एवं देश के विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए।क्योंकि विविधता भारत की शक्ति है और भारत की आम जनता इस विविधता में जीने की आदी है। इसलिए जाति और धर्म को राजनीति दल द्वारा बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए।
हम जनता को भी इस संबंध में जागरूक होना होगा। जो नेता धर्म और जातिवाद का नाम लेकर वोट मांगते हैं उनका बहिष्कार करना होगा। उन्हें नोटा दबाकर पवेलियन का रास्ता दिखाना होगा। जनतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की हिस्सेदारी होती है और इस देश में जितने भी धर्म के लोग हैं वे अब इस देश का हिस्सा है इसलिए अब वैसी स्थिति नहीं बननी चाहिए जिससे देश को दोबारा जातिगत एवं धार्मिक दंगों को झेलना पड़े।
हम आम जनता को जागरूक होना होगा क्योंकि धार्मिक उन्माद सेअभी भी देश मुक्त नही हुआ है। जहां-तहां जब और तब इन दंगों को हवा मिलती रहती है परंतु, प्रशासन सतर्कता की वजह से सफल नहीं हो पा रही हैं। जिस दिन प्रशासन ने इस संबंध में लापरवाही बरती उस दिन निश्चय ही हमारा देश भी धार्मिक उन्माद की आग में जलने लगेगा। बहुत ज्यादा जरूरी है कि देश को धार्मिक आडम्बर से बचाया जाए। जीवन के लिए धर्म नहीं बल्कि अर्थ जरूरी होता है इसलिए अर्थ को ही राजनीतिक दलों द्वारा अपना मुख्य मुद्दा अर्थ बनाना चाहिए ताकि देश का विकास तीव्र गति से हो सके।
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