इन्सान को अपनेपन का अहसास हे -घर परिवार

उषा जोशी

गुजरात (पालनपुर)। घर, मकान, भवन, शब्द सुनते ही किसी भी इन्सान को अपनेपन का अहसास होता है। कोई चंचल..हिरनी सी फुदकती भोली सी कोमल बालिका हो या फिर कोई अल्हड बालक!! बचपन मे उन्होंने खेल खेल में मिटटी का घरौंदा ना बनाया हो, असंभव! इन्सान तो क्या, चींटी हो या चिड़िया चूहा हो या शेर सभी.. प्राणियों को अपना अपना आशियाना हे।                         

हजारो अरमानो को लेकर अपने रीहदय कमल में तो कोई अपनी आँखों मे सपनों के रंगीन महल को निहारता हे। गांव का हो या शहर का अमीर हो या गरीब, हर किसी की एक अभिलाषा होती है कि अपना भी एक सुंदर आशियाना हो। 

बचपन से जवानी तक मन मे लाखों सपनें संजोता संवारता वो कब बडा हो  गया, मालुम नहीं पड़ता। फिर एक दिन अपनी अपनी हैसियत, काबलियत मुताबिक अपना भवन रचाता है। पर आप सभी को एक सवाल है, क्या इट, मिटटी,  सीमेंट लोहा, पत्थर से बना हुआ घर सही मायने में घर है? नहीं जी,घर तो सहीअर्थ में, वो है. जहां संसार नैय्या को चलाते समझदार प्रेमी युगल हो, मासुम प्यारे बच्चों की किलकारी हो, बुढ़े स्वजनों के  स्वाभिमान की देखभाल हो। अथर्ववेद- के पेंज नंबर 3/30/2 में कहा है,

 अनुव्रत: पितुः पुत्रो  मात्रा भवत संमना:।।  

जाया पत्ये मधुमतीम वाचं वदतु शन्तिवाम्।। 

जहां संतान मातापिता- बडों का सम्मान करें, आज्ञापालन करें, मातापिता संतानों के हितों की सदैव चिंता करें पति पत्नी के पारस्परिक संबंध मीठेमधुर एवं सुखदायी हो ऐसे परिवार हमेशा प्रगतिशील सुखी रहते हे। वर्षा का आगमन मन को आहलादित करता हे,धरती माता तृप्त, नवपल्लवित होती हे, ठीक वैसा हि अनुभव घर मे आते हि होगा समझो वही घर मंदिर हे। सारी दुनिया घूमों..., घर जैसी खुशियां कहीं नहीं। कहते है ना कि, धरती का  छोर घर" पति पत्नी रुप दो पहिये पर चलने वाला संसाररथ अच्छे चला, मानों संसार सागर की गहराई नाप ली!!!।      

वर्तमान समय हमें चिंतित कर रहा हे, आज का युवा मन पाश्चात्य संस्कृति की ओर खींचा चला जा रहा हे। आज दिन प्रतिदिन आस्थाएँ बिखर रही हे परिवारों तूटते नजर आ रहें है । ये खुब करुणामयी वेदना हे, मानों घर, घर नहीं ईट माटी का मकान बन जायेगा कया ?!!  आदर्श परिवार की संकल्पना स्वप्न हो जायेगी कया? हमें संकल्प लेना हे, "मेरा नहीं, हम सबका"। 

अहं को मारना होगा, सही आदतें डालनी होगी परिवार मे एक दूसरों की प्रति आत्मियता, कर्तव्यभाव से अनुकूलन साधना हे। कठिन जरूर हे पर ठान लो तो। बेडापार!! हमारे पुरखों / बडों का व्यवहार देखो, वो सभी परंपराओ को अपनी शान समजकर सब मिलकर निभाते थे परिवार से ही स्नेह,  संस्कार मिलते थे, मानों घर हि गुरुकुल/ घर हि पाठशाला.                  

परिवारों मे एक जूटता होगी तो पडोश, गाँव, शहर और अंत मे राष्ट्र एकजूट होगा। हमारी समाज व्यवस्था मे घर परिवार एक आधार शीला, करोडरज्जु हे। बच्चों का मन कोमल/ काँच के शीशे जैसा होता हे, उन्हें बहुत नजाकत से संभालना होता हे, शुरूआत मां से होती हे,                     

नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गति।.

नास्ति मातृसमंत्राणं, नास्ति मातृसमा प्रिया।।                          

ईसीलिये मां को सर्व प्रथम गुरु कहा हे,सबसे पहला ज्ञान मां से मिलता हे उनके स्नेह सिंचन से छोटा पौधा बरगद पेड़ बन पाता हे।और राष्ट्र को स्वस्थ, विचार शील, विद्वान नागरिक मिल सकता हे ज्यादातर परिवार मे परिवार निर्वाह का दायित्व पुरुषों पर होता हे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण पिता बाहर होता हे, खैर अभी स्रीयाँभी परिवार निर्वाह मे सहभागी होती जा रही हैं, किन्तु बदलते परिवेश मे उनका परिवार  समाज पर प्रभाव वर्तमान की चिंताएँ भी हे,जिस पर बौद्धिक आवश्यक हे। 

लडका हो या लडकी,बालमानस, युवा मानस को पहचानना  जरूरी हे,और उन्हें संस्कार, संस्कृति से अवगत कराना और भी जरूरी हे कई किस्से मे, खुन पसिने एक कर बडा किया संतान पंख आते हि फुदकने लगता हे, एक होड सी लगी हे," मै कयों एडजस्ट करुं"??!  पश्चिमी संक्रमण हमें बहुत भारी पडेगा।ईन्सान कितना भी एज्युकेटेड हो,उसे जीवन जरूरी मूल्यों की समझ ना हो कोई किमत नहीं ऐसी  पढाई की, जो अपनों से जुदा करें. यदि कुदरत रुठी, कोई नहीं संभल पायेगा अपनों की अहमियत पूछों जिन्होंने कोरोना मे अपनें खोये हे।....

हमें तय करना हे/प्रतिज्ञा करनीहे, कौन सा बीज आपस मे बोना हे,प्रेम, मेहनत,, सहयोग, सम्मान शीखना, शीखाना हे। मुश्किल परिस्थितियों मे परिवार सुदृढ़ बनाना हे। 

देश का भविष्य हे, सुरक्षा पानेके लिए सुरक्षा करनी पडती हे। जहाँ परस्पर प्रेमी परिवार हो, वहां प्रभु का निवास हे, वही घर मंदिर हे। हमें सिर्फ शब्दों से नहीं जी कर दिखाना हे। संकल्प शक्ति को मजबूत करनी हे। मतभेद , हो सकता हे, मनभेद नहीं करना हे। स्वामी श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते है, "फुल  खिलेगा, मधुमक्खी अपनेआप चलीं आऐगी"। 

वात्सल्य, निस्वार्थ सेवा, समर्पण और परस्पर विश्वास इन सब गुणों का संगम परिवारों क़ बिछडते बचा सकता हे हमें अधिकारों के प्रति जागरूक होते हुए कर्तव्य निभाने के प्रति भी दृढ़ संकल्प जरूरी हे, फिर आने वाला कल अवश्य सुवर्णमय होगा घर  एक मंदिर होगा।

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