हिन्दी भाषा करोड़ों भारतीयों की आत्मा है - राजर्षि टंडन
हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने वाले राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन के हम सदैव ऋणी
प्रदीप पाल
महात्मा गांधी के अनुसार राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है। प्रथम पूर्व राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। श्री कमलापति त्रिपाठी के अनुसार हिन्दी भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
श्री सुमित्रानंदन पंत के अनुसार हिन्दी हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का सरलतम स्रोत्र है। राजर्षि टण्डन के अनुसार हिन्दी भाषा करोड़ों भारतीयों की आत्मा है। अटल जी पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई की सरकार में 1977 से 1979 तक विदेश मंत्री रहे। इस दौरान वर्ष 1977 में संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने अत्यन्त ही विश्वव्यापी दृष्टिकोण से ओतप्रोत भाषण हिन्दी में दिया था। अटल जी ही पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर भारत तथा हिन्दी को गौरवान्वित किया था।
संविधान में विभिन्न नियम कानूनों के अलावा नए राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का मुद्दा अहम था। काफी विचार-विमर्श के बाद हिन्दी और अंग्रेजी को नए राष्ट्र की आधिकारिक भाषा चुना गया। 14 सितंबर साल 1949 को संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को अंग्रेजी के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया था। बाद में जवाहरलाल नेहरू सरकार ने इस ऐतिहासिक दिन के महत्व को देखते हुए हर साल 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया।
भारत रत्न पुरूषोत्तम दास टंडन ने हिन्दी को राजभाषा और देवनागरी को राजलिपि के रूप में अथक प्रयासों के द्वारा स्वीकृत कराया था। वह हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने के लिए आजीवन प्रयासरत रहे। आधुनिक भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, राजर्षि के नाम से विख्यात टंडन जी का जन्म 1 अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद मंे हुआ था। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले टंडन जी अपने उदार चरित्र और सादगीपूर्ण जीवन के लिए विख्यात थे। टंडन जी के व्यक्तित्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष उनका विधायी जीवन था, जिसमें वह आजादी के पूर्व एक दशक से अधिक समय तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रहे। वे संविधान सभा, लोकसभा और राज्यसभा के भी सदस्य रहे। वे समर्पित राजनयिक, हिन्दी के अनन्य सेवक, कर्मठ पत्रकार, तेजस्वी वक्ता, बहुभाषाविद् और समाज सुधारक भी थे।
राजर्षि पुरूषोत्तम टंडन जी स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले महान राजनेता थे। टण्डन जी को भारत के राजनैतिक और सामाजिक जीवन में नयी चेतना एवं नयी क्रान्ति पैदा करने वाले कर्मयोगी के रूप में जाना जाता है। वे जन सामान्य में राजर्षि (संधि विच्छेदः राजा़ऋषि - राजर्षि अर्थात ऐसा प्रशासक जो ऋषि के समान सत्कार्य में लगा हुआ हो) के नाम से प्रसिद्ध हुए। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी टंडन जी को राजर्षि की उपाधि ब्रह्मर्षि देवरहा बाबा ने दी थी। टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण हुआ। वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले “आजादी प्राप्त करने का” और आजादी के बाद “आजादी को बनाये रखने का” साधन मानते थे। वे महात्मा गांधी के अनुयायी होने के बावजूद हिंदी के मामले में उन के विचारों से सहमत नहीं हुए। उत्तर प्रदेश विधानसभा में हिंदी का चलन उनके कार्यकाल में ही शुरू हुआ। इलाहाबाद के सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में उन्होंने प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा पाई। 1897 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसी साल 15 साल की अल्पायु में ही उनकी शादी मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया। 1899 में उन्होंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कालेज में प्रवेश लिया। इसी के साथ वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय हो गए थे। क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े होने के कारण ही उन्हें 1901 में कालेज से निष्कासित कर दिया गया। इसी बीच 1903 में उनके पिता का निधन हो गया। इन सब चुनौतियों को पार करते हुए 1904 में उन्होंने स्नातक कर लिया। 1907 में उन्होंने इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और इसके बाद एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त करने के बाद वकालत प्रारंभ की। पढ़ाई जारी रखते हुए वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस समय के नामी वकील तेज बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए। टंडन जी ने ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज में हिंदी के लेक्चरर के रूप में कार्य किया उस समय अटल बिहारी वाजपेई विक्टोरिया कालेज के छात्र हुआ करते थे। टण्डन जी कहते थे कि हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसकी रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया। अतः यह कहा जा सकता है कि टण्डन जी के साध्य स्वतंत्रता और हिन्दी दोनों ही थे। राजर्षि में बाल्यकाल से ही हिन्दी के प्रति अनुराग था। इस प्रेम को श्री बाल कृष्ण भट्ट और महामना मदन मोहन मालवीय जी ने प्रौढ़ता प्रदान की। टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार -प्रसार के लिए हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की। इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार व्यापक रूप से करना था।
विद्यापीठ हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ सम्पन्न करता था। इन परीक्षाओं से दक्षिण में भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार हुआ। इस कार्य का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा, अनेक महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठयक्रम को मान्यता मिली। पुरूषोत्तम दास टंडन जी के राजनीतिक जीवन का प्रारंभ 1905 में हुआ, जब उन्होंने बंगभंग आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया। इससे प्रभावित होकर उन्होंने स्वदेशी का व्रत धारण किया और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया। 1906 में उन्हें इलाहाबाद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया। टण्डन जी पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में सात बार जेल गए। वह इलाहाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष रहे और अपने कार्यकाल के दौरान अनेक साहसी तथा ऐतिहासिक कार्य किए। इन सब के साथ टंडन जी अपने साहित्यिक जीवन में भी आगे बढ़ रहे थे। यही समय था जब उनकी प्रसिद्ध रचना बन्दर सभा महाकाव्य ‘हिन्दी प्रदीप’ में प्रकाशित हुई। टण्डन जी के धर्म और संस्कृति सम्बंधी निबंधों में- भारतीय संस्कृति और कुम्भमेला, भारतीय संस्कृति संदेश तथा अन्य निबंधों में लोक कल्याणकारी राज्य, धन और उसका उपयोग, स्वामी विवेकानन्द और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि अति महत्वपूर्ण हैं।
बात 1948 के आसपास की है। प्रदेश में नागरी लिपि सुधार का काम चल रहा था। प्रसिद्ध साहित्यकार भगवती शरण सिंह नागरी सुधार समिति के सदस्य सचिव बनाकर लखनऊ बुलाए गए। उन्होंने राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन और आचार्य नरेन्द्र देव की देखरेख में काम शुरू किया। उन्हें प्रतिदिन टंडन जी और आचार्य जी से मिलना होता था। कभी-कभी जब आचार्य नरेन्द्र देव, टंडन जी के यहां जाते तो श्री सिंह को भी वहां बुला लेते। एक दिन जो हुआ उसे सुनकर कोई भी दांतों तले अंगुली दबा सकता है कि इन महापुरूषों ने कितनी मुसीबतें उठाकर देश की नींव को मजबूत किया। श्री सिंह ने एक संस्मरण में लिखा है, ‘एक दिन राजर्षि टंडन ने सुबह-सुबह ही मुझे अपने यहां बुला लिया। पहुंचा तो देखा कि आचार्य नरेन्द्र देव भी वहां मौजूद हैं। बात करते-करते दिन के डेढ़ बज गए। आचार्य नरेन्द्र देव ने जाने की आज्ञा मांगी। टंडन जी को ध्यान आया कि इतना समय हो गया है।
आचार्य नरेन्द्र देव के भोजन का भी समय हो गया है। उन्होंने आचार्य से कहा, ‘नरेन्द्र देव अब भोजन करके जाओ। भोजन करते हुए और भी बातें हो जाएंगी।’ मुझे साथ लेकर दोनों लोग भोजन की मेज पर बैठ गए। रसोई से तीन छोटी-छोटी थालियां लाकर हम लोगों के सामने रख दी गईं। फिर उनमें दो छोटी-छोटी ककड़ियां और एक-एक डली गुड़ आ गया। मैं सोच रहा था कि अब दाल और रोटी आएगी। पर, यह क्या! राजर्षि टंडन और आचार्य जी ने भोजन शुरू कर दिया। मैं अपनी थाली को निहार रहा था। तभी टंडन जी ने आवाज लगाई, ‘अरे भाई! घर में अगर रोटी हो तो भगवती के लिए ले आओ।’ रसोई से निकले व्यक्ति ने एक रोटी मेरी थाली में रख दी। मैं समझ गया कि टंडन जी के यहां यही उपलब्ध है। यह सोचकर मेरे दिल में टंडन जी के लिए श्रद्धा और बढ़ गई।’ पुरूषोत्तम दास टंडन अत्यंत मेधावी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः तीन भागों में बँटा हुआ है- स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य और समाज। उनके संघर्ष और त्याग को लक्षित करते हुए श्री किशोरीदास वाजपेयी जी ने लिखा है- ‘जब जब राष्ट्रीय संघर्ष हुए, टण्डन जी सबसे आगे रहे।
आप खाली बैठना तो जानते ही नहीं। जब वे जेल से छूटे तो उन्हें दिखलाई पड़ा कि भारतीय समाज में निराशा छायी हुई है, सभी हताश पड़े हुए हैं। अतः उन्होंने कांग्रेस प्रतिनिधि असेम्बली नामक संस्था की स्थापना कर पुनः नई चेतना का संचार किया और जब प्रान्तीय कमेटियाँ बनी तब प्रतिनिधि असेम्बली भंग कर दी गई। पत्रकारिता के क्षेत्र में टण्डन जी अंग्रेजी के भी उद्भट विद्वान थे। श्री त्रिभुवन नारायण सिंह जी ने उल्लेख किया है कि सन् 1950 में जब वे कांग्रेस के सभापति चुने गए तो उन्होंने अपना अभिभाषण हिन्दी में लिखा और अंग्रेजी अनुवाद मैंने किया। श्री सम्पूर्णानन्द जी ने भी उस अंग्रेजी अनुवाद को देखा, लेकिन जब टण्डन जी ने उस अनुवाद को पढ़ा, तो उसमें कई पन्नों को फिर से लिखा। तब मुझे इस बात की अनुभूति हुई कि जहाँ वे हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे, वहीं अंग्रेजी साहित्य पर भी उनका बड़ा अधिकार था। सन 1961 में भारत सरकार ने टण्डन जी को देश की अनुकरणीय सेवाओं के लिए सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
हिंदी साहित्यकार वियोगी हरि ने अपने संस्मरण में लिखा है, राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन को उनकी सेवाओं के लिए ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा हुई। वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार और कवि सुमित्रानंदन पंत को ‘पद्मभूषण’ दिया गया। कोई और होता तो वह इस उपलब्धि पर इतराता घूमता तथा ढिंढोरा पीटता। पर, राजर्षि टंडन तो अलग ही मिट्टी के बने थे। उन्हें अपने भारत रत्न मिलने की उतनी खुशी नहीं थी जितनी पंत जी को ‘भारत रत्न’ न मिलने का दुख। इस बारे में उन्होंने मुझको पत्र लिखा, ‘भारत सरकार की यह उतार-चढ़ाव वाली उपाधियां देना मुझे पसंद नहीं। मुझे ‘भारत रत्न’ और सुमित्रानंदन पंत को ‘पद्मभूषण।’ यह ठीक है कि उम्र में मैं बड़ा हूं। मंैैने भी काम किए हैं। पर, आगे चलकर लोग पुरूषोत्तम दास टंडन को भूल जाएंगे लेकिन पंत जी की कविताएं तो हमेशा अमर रहेंगी। उनकी कविताएं लोगों की जुबान पर जिंदा रहेंगी। उनका काम मुझसे ज्यादा स्थायी है। इसलिए सुमित्रानंदन पंत को ‘भारत रत्न’ मिलना चाहिए।’ ऐसे थे राजर्षि टंडन। राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन इंटरमीडिएट कालेज, इलाहाबाद में आयोजित हुए एक कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश की कैबिनेट मंत्री, श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी ने कहा था कि राजर्षि का जीवन मानवता के लिए समर्पित था।
हिंदी के उत्थान के लिए उन्होंने जो किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। राष्ट्र के किसानों को उन्होंने हिंदी से जोड़ने का काम किया। शिक्षा के साथ कौशल विकास पर बल दिया। स्वतंत्रता आंदोलन में इलाहाबाद ने बड़ी भूमिका निभाई थी। इसमें राजर्षि के योगदान को कम नहीं आंका जा सकता। उनकी निगाह में राष्ट्र और राष्ट्रभाषा से बढ़कर कुछ नहीं था। टंडन जी ने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। 1 जुलाई 1962 को यह राजनीतिक व सामाजिक योद्धा सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गया। देह रूप में टण्डन जी हमारे बीच नहीं है लेकिन एक हिन्दी प्रेमी, प्रखर वक्ता, विचारशील पत्रकार, साहित्यकार व समाज सुधारक के उत्साह से भरे विचार के रूप में वह सदा मानव जाति को प्रोत्साहित करते रहेंगे। आत्मा अजर अमर अविनाशी है। महान आत्मा टण्डन जी के सम्मान में महान कवि सुमित्रानंदन पंत की एक कविता प्रस्तुत है:-
जीना अपने ही में एक महान कर्म है, जीने का हो सदुपयोग यह मनुज धर्म है।
अपने ही में रहना एक प्रबुद्ध कला है, जग के हित रहने में सबका सहज भला है।
जग का प्यार मिले जन्मों के पुण्य चाहिए, जग जीवन को प्रेम सिन्धु में डूबना चाहिए।
ज्ञानी बनकर मत नीरस उपदेश दीजिए, लोक कर्म भव सत्य प्रथम सत्कर्म कीजिए।
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