गुरु -एक शिल्पकार
विजय सिंह
लक्ष्यविहीन सा मैं था,
दिशाविहीन से पथ पर!
गतिविहीन से कालचक्र के,
मायावी मस्तक पर!!
चंचल मन में व्यतिक्रम था,
आशाओं का उद्गम था!
घने तिमिर के प्रादुर्भाव में,
ठोकर खाता जीवन था!!
हुनर की बारीकियां भी,
ना किस्मत बदल सकीं!
ना तो सीरत बदली,
ना नीयत बदल सकी!!
जब भी मिली पराजय,
मायूस हो गए!
पर ना पैतरा बदला,
ना सूरत बदल सकी!!
मंथन होना है समुद्र का,
पर बलिदान करेगा कौन!
महादेव बन, नीलकंठ सा,
विष का पान करेगा कौन!!
सबको अमृत की आशा है,
मृत्युंजय सी अभिलाषा है!
स्वर्ण भस्म, कुंदन बनने को,
तप कर आग बनेगा कौन!!
नव प्रभात की आस में,
विजय के विश्वास में!
जो मांगा था नियति से,
वो मिला गुरु के पास में!!
गुरु से साक्षात्कार हुआ,
जीवन का उद्धार हुआ!
ज्ञान योग से मानव मन,
बैतरणी के पार हुआ!!
गुरु होते हैं शिल्पकार,
करते जीवन का परिष्कार!
करता विजय नमन इन्हें,
जिसे करें सहर्ष स्वीकार!!
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