नवनिर्माण करने वाले ये श्रमिक कौन है?
(विश्वआदिवासी दिवस पर विशेष)
आज भी शहरों में चौराहो पर प्रातः काम माँगने के लिए खडी भीड किसकी है?
खुशवन्त कुमार माली
आदि अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ से अद्यावधिपर्यन्त जो निःसर्ग के अंक में जीवनयापन करते हुए प्रकृति का संरक्षण, संवर्द्धन और पुनर्भरण कर रहे है वे महामानव सच्छे अर्थों में प्रकृति पूजक है। कोई आक्षेप नहीं, कोई शिकायत नहीं पर "आदिकाल" से प्रकृति के साथ सहवास कर रहे इन प्रकृति पुत्रों को ओछे, छोटे और जातिसूचक शब्दों से अपमानित करना सिर्फ इसलिए क्योंकि वे जंगलों में रहे और आधुनिक शिक्षा व सभ्यता से दूर रह गए। जो भी हो विचारणीय बिन्दु है। जिन्होने सच्चे अर्थों में प्रकृति में जीवन देखा, जिया व प्रकृति की जीवन पर्यन्त पूजा की।
क्या वे आज उपेक्षा के शिकार नहीं है? सरकारी योजनाएं, आरक्षण और तमाम प्रयास जो आज तक हुए है। अगर जमीनी स्तर पर समीक्षा की जाएं जो सब की हवां निकल जाती है। आज भी शहरों में चौराहो पर प्रातः काम माँगने के लिए खडी भीड किसकी है? आशा भरी दृष्टि से काम माँगने वाले खड़ी भीड का हिस्सा कौन है? काम न मिलने पर फुटपाथों पर भूखे मिछी आँखों वाले कौन है? जंगली उत्पाद जैसे- वन-औषधी, कन्द, मूल, फलऔर सब्जियाँ जो बड़े जद्योजहद् के बाद ढोकर शहरों तक लाई जाती है।
आशा भरी दृष्टि से काम माँगने वाले खड़ी भीड का हिस्सा कौन है?
जरा विचारे क्या इन प्रकृति पूजकों को उसका उचित दाम मिल पाता है? खनन, उत्खनन, व नक्काशी, तराशी में मार्बल, ग्रेनाईट की स्लेरी जो अनायाश फेफड़ों में जाकर सिलिकोसिस व अन्य श्वास सम्बंधी बीमारियों से अकारण काल का ग्रास बनते ये कारीगर कौन है? निर्माण कार्य व जोखिमपूर्ण कार्यों में अपनी ऊर्जा व श्रमशक्ति से नवनिर्माण करने वाले ये श्रमिक कौन है? ढाबों, होटलों व रेस्टोरेंटों में हेल्पर, वेटर, मशालची, रसोईयाँ व सफाई कर्मियों के रूप में मेहनतकश दिन-रात काम करने वाले हाथ कौन है?
और भी बहुत कुछ है? सभी पर गहन चिन्तन व मनन किया जाएं तो उत्तर केवल एक ही प्राप्त होता है- प्रकृति पुत्र, सेवक जिन्हे आदिवासी इस नाम से देश और दुनियाँ में पहचान दी गयी है। प्रकृति के प्रति गहरी निष्ठा व आस्था एवं प्रकृति की उपासना के चलते इन्हें जो भी 'आभाणक' दिया जाएं वो कम है। प्रकृति से आसन्न रहने के कारण उसकी पूजा, संरक्षण, संवर्द्धन व पूर्नभरण की समझ जितनी इनमे है उतनी किसी भी अन्य प्राणि में नहीं।
प्रकृति के संसाधनों का मितव्यता पूर्ण उपयोग मानव जाति को इनसे सिखना चाहिए। इनकी संस्कृति में रचा-बसा प्रेम मानव जाति के लिए प्रेरणापुञ्ज है। भजन- संकीर्तन, मेले, त्योहार, पर्व व अन्य सामाजिक आयोजनों में प्रकृति की उपासना,उसके प्रति अपार श्रद्धा व आस्था के नयनाभिराम दर्शन अनायास मनमोह लेते है। वस्तुतः स्वभाव से दयालू व अतिस्नेही प्रवृति के चलते ये बहुत जगह ढगे जाते है।
हम सभी एक छोटा सा प्रयास करें व इनको उचित मान- सम्मान दे व दिलवाएं..
शिक्षा के अभाव में डरे व सहमे जीवन जीते हुए अथक परिश्रम के श्रमदान जो नितान्त अपर्याप्त है के द्वारा शहरों का विकास व विस्तार करते जा रहे है। मेरी यात्राओं के क्रम में सिरोही- गुजरात से सटे आदिवासी बहुल क्षेत्र में व्यतित किया गया समय यादगार, मर्मस्पर्शी, प्रेरणादायी व हृदयग्राही है जो मनः मस्तिष्क पर गहरी छाप छोडता है।
ऐसा प्रेम, सहयोग, समर्पण, निष्ठा, ईमानदारी, स्वामीभक्ति, कर्तव्यपरायणता नितान्त असम्भव है जो इनके सहज, सरल स्वभाव व जीवन शैली का हिस्सा है। कितना भोलपन होता है इनके स्वभाव में जो सर्वदा अनुकरणीय व ग्राह्य है।
चिन्तन का विषय है कि क्या आज तक इनके साथ अन्याय क्यूं? आज भी मुख्यधारा से कोसो दूर क्यूं है ये प्रकृतिजन? सरकारों के प्रयासों का फल क्या है? अगनित प्रश्न है मस्तिष्क में जवाब कहीं नहीं। यदि आप जानते है तो टटोलिए अपने चिन्तन को, खंगालिएं अपने मन को और बदलिए अपनी दृष्टि व दृष्टिकोण को इनके प्रति व दीजिए इनको अगनित प्रयास और फिर देखिए परिवर्तन की धारा को।
हाँ मित्रों ये तो करना ही पडेगा वरना हमारा आदिवासी दिवस मनाना जीवन्त मूर्खता व महज औपचारिकता बनकर रह जायेगी। आखिर कब तक तस्करों, चोर-उच्क्को, बहुराष्ट्र कम्पनियों व सरकारी नितियों की ढील के चलते हो रहे प्रकृति ह्रास के लिए इन प्रकृति जन पर दोषारोपण होता रहेगा। और क्यूं ? जबकि ये निर्दोष, निर्लिप्त है। आइएं हम सभी एक छोटा सा प्रयास करें व इनको उचित मान- सम्मान दे व दिलवाएं
"मानव- मानव एक समान।
जात- पात का मिटे निशान।।"
तभी यह श्लोगन सच्चे अर्थों में सफल हो सकेगा। वरना वादे पे वादा और फ़िर वादा खिलाफी के लिए हम सभ्य, सुशिक्षित मनुष्य जगत विख्यात हैं।
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