दिलचस्प है सरकारों का महिला सशक्तिकरण?

हिंसा -एक सुलझा हुआ बलात्कार? 

या ...सभ्यता का शिष्टाचार.. कामकाजी महिलाओं के साथ बढ़ती कायिक...! 

खुशवन्त कुमार माली

अति आधुनिक युग में नौकरी के अवसर बढ़े है तो प्रतिस्पर्धा भी। बढ़ती जनसंख्या के साथ समस्याएं भी बढ़ती ही जा रही है। उसमे बेरोजगारी एक चिरपरिचित नाम है। समस्याएं गहरी है पर सब मौन है खामोश है क्यूंकि आधी से ज्यादा आबादी को सरकारों ने हिन्दू, मुस्लिम जाति, धर्म और मजहब के नाम पर बाँट रखा है। इस बीच दिलचस्प है सरकारों का महिला सशक्तिकरण। 

बनती बिगडती सरकारों ने संविधान संशोधन द्वारा 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की व्यवस्था का दम्भ भरा जो शायद आज तक प्रभावी न हो सका है। महिलाएं ठगी जाती रही है और नारी शक्ति है इसकी थाह में खुद को पहचानती, खोजती, टोटलती, सँवारती स्वयं रम्भा, चण्डी, और शैलजा बन परिवार में हर जिम्मेदारी को बखूबी निभा रही है तो बाहर भी वर्किंग वीमेन्स उत्कृष्ट उपलब्धियाँ अर्जित कर खूब नाम कमा रही है। हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा, कार्यशैली, दक्षता व कार्यकुशलता से ऊँचे मुकाम पा रही है। 

 ...नारी होना एक अभिशाप है?

घर से बाहर निजी और सरकारी क्षेत्र में आगे बढती ये महिलाएं हजारों समस्याओं का सामना कर रही है। उनमे से एक है "कायिक हिंसा" सुनने में थोडा अटपटा, कुछ नया यह शब्द अपने आप में अथाह पीड़ा, वेदना व दुःख को अपने अंक में छिपाएं हुए है। जिसकी परिणती समय - समय पर होती अप्रिय घटनाओं के रूप में सामने आती है, सुनी जाती है। वे बस लेश मात्र है। 

"व्यष्टि में वेदना तो बस नारी होना एक अभिशाप है।"बहुत कम आवाजें है जो निकल पाती है। कूचल दी जाती है, दबा दी जाती है या फ़िर हमेशा के लिए खामोश कर दी जाती है। ये सच है पर सब मौन है क्यूंकी 'समाज पुरुष प्रधान हैं और संस्कृति स्त्री प्रधान।

'जैन दर्शन साधुवाद का पात्र है कि उसने समष्टि में हिंसा को आंगिक, वाचिक व कायिक से व्यवस्थित पहचान दी। मेरी दृष्टि में यह कायिक हिंसा पूर्ववर्ती आंगिकन, वाचिक की प्रेरणा स्त्रोत तो है ही उनका मूल भी है। जिसमें स्त्री की अस्मिता को खतरा है। जाने कितनी महिलाओं के साथ घटती हिंसक घटनाएं है जो दर्ज ही नहीं हो पाती वरना हम इसे बहुधा सरल रूप में समझ पाते। 

कामकाजी महिलाएं या वर्किंग वीमेन्स को सबसे ज्यादा चोटिल और हताश करता है सभ्य पुरुष द्वारा उसका प्रथम दर्शन जो उसकी अस्मिता पर होता है। खेद है पर विषय गहरा है तो थोड़ा खुलकर बात करनी होगी!

शायद उसके स्तन भाग को देखना, घूरना या ताडना व ताकना..अपने कामकाज में व्यस्त वह अपनी चुनरी, पल्लू या स्टाल आदि से उस भाग को ढ़कते, बचाते, सम्भालते हुए अपने कर्तव्य का निर्वहन करती है। 

इसका सबसे ज्यादा शिकार हो रही है वे फ्रन्ट लाईन वर्कर्स जो शिक्षा, चिकित्सा, बैंकिग, बीमा व नियामक क्षेत्र और निजी क्षेत्र कार्यरत है। बहुत सी महिला मित्र जो इन क्षेत्रों में कार्यरत हैं वे अपने अनुभवों को सुनाती है तो चिन्ता गहरी हो जाती है और विचारने को विवश हो जाता हूँ कि आजादी के इतने सालों बाद सभ्यता, संस्कृति, विज्ञान व प्रौद्योगिकी के विकास में हमारे मूल्य, आदर्श कहाँ रह गएं जो महिलाओं को "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।"बताते थे।

क्या सब धता है, ढोंग है, प्रपंच है या ऐसा आडम्बर है जो केवल महिलाओं को ठगने, लूटने व कूटने के लिए गढ़ा गया हो। हॉं शायद यहीं हमारा महिला सशक्तिकरण है।

खैर जो भी हो सब नितान्त त्याज्य, हेय व निन्दनीय है..

यहाँ यह पक्ष भी देखना अनिवार्य है कि वे महिलाएं जो घर की आवश्यकता, मजबूरी, प्रतिभा व ज्ञान के उपयोग हेतु घर से बाहर निकलती है। उन पर सभ्य पुरुषों की हिंसावाली दृष्टि का कुछ खास दुष्प्रभाव नहीं होता या यूँ कहूँ के वे इन सबकी आदि हो चुकी है जो अपने काम में सफलता व उत्कृष्ट उपलब्धियों द्वारा अपने सहकर्मियों को पछाड रही है वे व्यस्त है मस्त है। पर क्या यह समस्या कम तन्दरुस्त है? जो भी हो मित्रों विचारे कि आँखों को सभ्यता का सलिका कैसे पढ़ाया जाएं। क्या दर्शनीय है और क्या नहीं? जो नहीं वहाँ प्रयास यह हो कि हमारी आँखें न पहुँचे व बढ़ती नारी सशक्ति को संबल मिल सके ताकि वह अपनी पूरी ऊर्जा से समाज को गति दे सकें। साथ ही साथ बढ़ती अप्रिय घटनाएं जो कर्ण भेदनी व आत्मघातिनी है समाप्त हो सके

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