विश्व के सशक्त हस्ताक्षर में से एक लक्ष्मीबाई

चमक उठी सत्तावन मे

निवेदिता मुकुल सक्सेना

1857 देश के लिए एक बहुत मुश्किल समय। इस समय में देश में अत्यंत ही हलचल राजनीतिक अस्मिता की लड़ाई के लिए हो रही थी ऐसे समय में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अपने राज्य में अराजकता को सीमित करते हुए अपने प्रजा जन का समर्थन और उनकी सुरक्षा दोनों का ही था। 

इतना आसान नही था वतन को आजाद कराना। कहते है, देश की ऊर्जा वहां की युवा शक्ति में  होती है और बुजुर्ग अनुभव की छांव से उत्साहित करते रहते है और इन सबकी केंद्र बिंदु इन सबको एक डोर में बांधे नारी होती हैं। फिर बात चाहे देश की हो या परिवार की वर्तमान में नारी को कई मायनो में भारत देश मे आजादी प्राप्त हुई चाहे शिक्षा , न्याय, आर्थिक व सामाजिक। इन सबके पीछे कई वीरांगनाओ ने संघर्ष करते हुए बलिदान दिया जो आज स्वर्णिम अक्षरो में भारत के इतिहास में दर्ज हैं जिनके आगे विरोधियो ने भी सिर झुका दिया। ऐसी ही महान वीरांगनाओ में से एक है " झांसी की रानी लक्ष्मीबाई"।  

रानी लक्ष्मीबाई एक साधरण से परिवार में जन्मी और रानी लक्ष्मीबाई देश ही नही विश्व के सशक्त हस्ताक्षर में से एक है। जिन्होंने सन 1857 के संग्राम में राष्ट्रवासियों के हित मे राष्ट्रीय स्वाधीनता युद्ध में बलिदानियों में रानी लक्ष्मीबाई का नाम दहकते अंगारे के समान लिया जाता हैं एक अलख अपने राज्य को बचाने की जन जन में जिसने भर दी थी। जिनके तपन सें ब्रिटिश साम्राज्य के पौरुष का लहू सूख गया था।उनका बलिदान राष्ट्रवासियों के लिए गर्व का विषय हैं।स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र की अस्मिता के रक्षा हेतु किसी नारी का योगदान बहुत कम रहा हैं,।

"रानी लक्ष्मीबाई के  पिता मोरोपंत ताम्बे एवं माता का नाम भागीरथी बाई" था।उनके बचपन का नाम मनु बाई व  मणिकर्णिका था।रानी लक्ष्मीबाई की माता सिर्फ चार वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हो गयी। तदोपरांत उनकी शिक्षा-दीक्षा पिता ने ही की।भागीरथी की मृत्यु के बाद मनुबाई को मोरोपन्त बिठूर ले गये, वहां उन्हें तात्यां टोपे और नाना साहब के साथ शास्त्रों और अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा भी दी गयी।बिठूर में पेशवा बाजीराव का निवास स्थान था,जहाँ उन्हें अंग्रेज पेंशन देते थे। बिठूर में रानी लक्ष्मीबाई को छबीली के नाम से बोला जाता था। तेरह वर्ष की आयु में छबीली का विवाह झाँसी के शासक गंगाधर राव नोवलकर के साथ हुआ। यहां झाँसी की रानी को लक्ष्मीबाई का नाम दिया गया। 

लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म भी दिया किन्तु तीन माह में उसका निधन हो गया ।  चिंता एवं खराब स्वास्थ्य के कारण गंगाधर राव ने दामोदर राव को दत्तक पुत्र लेकर उत्तराधिकारी घोषित किया दामोदार राव  को ब्रिटिश अधिकारियों ने अस्वीकृत कर दिया क्योंकि तब गोद लेने का कानून अंग्रेजो द्वारा नही बनाया गया। इन सबके मध्य  गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी।दत्तक पुत्र को वारिस न मानने से अंग्रेजों ने इनकार कर दिया तथा रानी  लक्ष्मीबाई को झाँसी के किले से निकलने का आदेश दिया गया तब लक्ष्मीबाई दुर्ग छोड़कर रानीमहल चली गयी। उस समय भारत वर्ष ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचारों से त्रस्त था।  इसका प्रचण्ड रूप झाँसी में भी दिखा। बाग़ियों ने झाँसी में अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया।  इस तरह  स्थिति को सम्हलते न देख  सागर के कमिश्नर ने रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का शासन सौंप दिया। इसी मध्य सदाशिव राव ने झाँसी के करेरा दुर्ग पर अधिकार कर खुद को झाँसी का राजा घोषित कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने सदाशिव राव को परास्त करके उसकी महत्वकांक्षा को मार गिराया।बागी सागर सिंह झाँसी के आस पास के क्षेत्रों का दस्यु था,रानी लक्ष्मीबाई ने आतंक को रोकने के लिए उसे अपनी ओर करके सैन्य-शक्ति बढ़ाई। झाँसी की अव्यवस्था का लाभ उठाकर टीकमगढ़ ओरझा के दीवान नत्थे खां ने वहां पर हमला बोल दिया,किन्तु रणनीति  की धनी लक्ष्मीबाई ने उसे बुरी तरह हराया।इन युद्ध गतिविधियों से अंग्रेज क्रुद्ध हो गए।जनरल ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेजों ने मार्च 1858 ईस्वी में झाँसी के किले को घेर लिया।

मजबूत क़िले के कारण ह्यूरोज के सारे प्रयास विफल हो गये।झाँसी के तोपची गुलाम गोस खां ने तोपों की गोलाबारी से अँग्रेजों को तितर-बितर कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई के प्रमुख सहयोगी में सुंदर, मुंदर, मोतीबाई और झलकारी बाई थी।उनकी सेना में महिला शाखा अलग से स्थापित थी।किसी देश द्रोही के दुर्ग द्वार खोले जाने से अंग्रेज किले के अंदर घुस गये।हार को देखकर रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बाँधकर कालपी की ओर प्रस्थान कर गयी।अंत मे झाँसी पर सर ह्यूरोज का अधिकार हो गया। कालपी में रानी लक्ष्मीबाई पेशवा और तात्यां टोपे से मिली। ह्यूरोज भी सेना लेकर कालपी आ पहुँचा,जहाँ पेशवा की सम्मिलित सेना और ह्यूरोज में युद्ध हुआ। इसमें अंग्रेजों का पलड़ा भारी रहा। यहाँ से रानी लक्ष्मीबाई क्रांतिकारियों के साथ ग्वालियर पहुँची तब "जियाजीराव सिंधिया" ने अंतिम समय मे अंग्रेजों का साथ दिया। 

अन्ततः एक समय पर इस युद्ध मे रानी लक्ष्मीबाई वीर गति को प्राप्त हुई। बात यही खत्म नही होती अब सिर्फ बलिदान दिवस की औपचारिकता मंच श्रद्धांजलि से खत्म होती हैं तो आत्मा झकझोरती हैं तब जब कितनी वीरांगनाओ ने इस राष्ट्र के लिए अपने परिवार के साथ राष्ट्रवासियों की रक्षा व उद्धार के लिए युद्ध यज्ञ में आहुति दी। 

फिलहाल, आज लगता हैं भारत स्वतंत्र नही हुआ क्योंकि उसे ऊपर से अंग्रेजो ने आज भी जकड़ रखा हैं लेकिन शिकायत कहा हो जब कई सत्ताधारी ही देश विरोधी ताकतों के साथ देश की अस्मिता को खण्ड खण्ड करने पर तुले हो। वर्तमान में देश मे सन 1857 जैसा ही द्वंद युध्द कोरोना संक्रमण से ज्यादा खतरनाक हो रहा ।कुछ चेहरे राष्ट्रवादीता के नाम पर सर्वधर्म समभाव के नाम से देश को खोखला कर रहे।  

भारत मे आज नारी भी सत्ता में स्वतंत्र रूप से कार्यरत हैं शायद देश सेवा या जनता का हित भी उनका दृष्टिकोण हो किन्तु वास्तविकता को नजरअंदाज नही किया जा सकता क्योंकि आज राष्ट्र सेवा में सत्ताधारी मिलावट समान अपनी नाम की सेवा दे रहे। बहरहाल, जब रानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस पर एक नन्हे से बालक को साथ रख युद्ध का दृश्य झकझोर देता हैं औऱ आज हम हँसते हुए उन्हें पुष्प अर्पित करते है तो वर्त्तमान जनता पर दया भाव प्रकट होता हैं क्योंकि पहले तो विद्रोह सामने नजर आता था किंतु आज कागजो पर है औऱ नारी सत्ताधारी चाहे एक  परिवार  के रहे हो वर्षो तक देश की सत्ता पर कब्जा कर राष्ट्रविरोधी ओर संस्कृति विरोधी लोगों के साथ मिलकर देश के भविष्य को अंधकार में ढकेलने की चेष्टा की जा रही हैं। 

70 वर्षो में देश को गर्त में पहुचने में कोई कसर इन लोगो द्वारा नही छोड़ी गई। और आज भी एक नारी के नेतृत्व में विध्वंस करने पर तुले है। अपनी बेटी को भी बढ़ावा देकर नेतृत्व दिलवाना चाहते है। 

"क्या है जिम्मेदारी हमारी" 

आज पाठयपुस्तको में भी नाम मात्र का दर्ज इन महान वीरांगनाओं का बलिदान हैं। तब सहसा याद आती हैं ये पंक्तियां सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित۔ 

"दूर फिरंगी को करने की सबने मन मे ठानी थी 

चमक उठी सत्तावन में वो तलवार पुरानी थी,"

राष्ट्र भक्ति का एक उद्देश्य एक संकल्प इन पंक्तियों को पढ़ते ही जाग उठता हैं। आवश्यकता है बालक बालिका में किशोर व युवा में देश भक्ति का वो जुनून जज्बा व सम्मान जगाने की सिर्फ कहने से नही अपने देश के लिए कर्तव्यों के प्रति सजग होने की अपनी संस्कृति के साथ। उस उजले सूरज के समान बलिदान दिवस पर रानी लक्ष्मीबाई के देश के प्रति गौरवशाली इतिहास को पुनः जाग्रत करते हुए श्रद्धांजलि देने की। सन 1857 में जैसे ही वो जागी थी जन जन में     उसने  अंग्रेज़ो से लड़ने की अलख जगाई थी ,कैसे कहे तुम अबला नही भारत की जीती नारी थी। 


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