किसानों के लिए घाटे का सौदा दलहनी फसलों की खेती

घाटे का सौदा साबित हो रही दलहनी फसलों की खेती

रामकुशल मौर्य 

अंबेडकरनगर. दलहन की खेती से किसानों का मोह भंग होने से आने वाले समय में जनपदवासियों को गैर जनपदों पर निर्भर होना पड़ेगा। इससे आम आदमी पर मंहगाई की मार झेलने के साथ जेबों पर अतिरिक्त भार भी बढ़ेगा। जनपद कभी दलहन की फसलों के उत्पादन के लिए अव्वल माना जाता था, लेकिन किसानों के लिए यह खेती अब घाटे का सौदा साबित हो रहा है।

जनपद में दलहन की फसलों में खासकर अरहर, मटर, उर्द व मंसूर की खेती होती थी। अरहर की फसल लगभग नौ महीने में पककर तैयार होती है, जबकि उर्द, मटर व मंसूर लगभग छह माह में तैयार होता है। पिछले दो वर्षों से दलहनी फसलों पर अलग अलग प्रतिकूल असर पड़ रहा है, जिससे फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही है। बदलते मौसम का प्रतिकूल असर व छुट्टा जानवरों तथा नील गाय फसलों के लिए अभिशाप साबित हो रहा है। 90 के दशक में जनपद के बलुई दोमट मिट्टी वाले क्षेत्र में बड़े पैमाने पर अरहर की खेती होती थी। कम लागत की खेती होने के चलते किसान इससे मुनाफा भी कमा लेते थे। समय बीतने के साथ अरहर की फसल का रकबा धीरे धीरे घटता गया, जिसका मुख्य कारण कृषि विभाग भी है। 

मौजूदा समय में किसानों को अरहर के खेती के प्रति जागरूक करने व प्रचार प्रसार करना सब बंद हो गया है। पैदावार कम होने के चलते धीरे धीरे किसानों का इस खेती से मोह भंग हो गया, जिससे गैर जनपदों के साथ गैर राज्यों पर दाल के लिए निर्भरता बढ़ गयी है, जिससे मंहगाई बढ़ने के साथ गरीब एवं मध्यमवर्गीय परिवार के थाली से दाल गायब हो गयी। इसके बावजूद कृषि महकमा अरहर का उत्पादन बढ़ाने पर कोई जोर नहीं दे रहा है। 

अरहर की खेती का रकबा कम होने का एक और कारण छुट्टा मवेशी भी है। अरहर के छोटे पौधे मीठे व स्वादिष्ट होते है, जिसे जानवर बड़े चाव से खाते हैं।

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