उत्थान से अवसान तक का सफर

सुभाष चंद्र कुशवाहा

मायावती ने अपनी चिरपरिचित शैली में बसपा के दो कद्दावर नेताओं को एक बार फिर बाहर का रास्ता दिखा दिया है। पार्टी विधानमंडल दल के नेता लालजी वर्मा और पूर्व पार्टी अध्यक्ष राम अचल राजभर, दोनों को 3 जून को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया है। ऐसा करते समय निष्कासन का कोई ठोस आधार नहीं बताया गया। मात्र यह आरोपित कर कि पंचायत चुनाव में दोनों ने पार्टी विरोधी कार्य किया, बेदम आरोप है क्योंकि इनके पर कतरने की तस्वीर तो काफी पहले से दिख रही थी। लालजी वर्मा और राम अचल राजभर को करीब से जानने वाले अम्बेडकर नगर के कार्यकर्ताओं को असलियत मालूम होगी कि स्वामिभक्ति में डूबे रहने वाले इन दोनों में इतना साहस कहां था?

दो बार जून का महीना बसपा के कद्दावरों के लिए आफत का रहा।

सामंती सोच और बहुजन वैचारिकी को तिलांजलि दे चुकीं बहनजी ने जून में ही बड़ों-बड़ों के पर कतरे हैं। कभी पार्टी के दूसरे नम्बर के ओबीसी नेता, स्वामी प्रसाद मौर्य, महासचिव, पार्टी अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में रहने के बाद, एक दिन जून 2016 में पार्टी से बाहर निकाल दिए गए। साल भर पहले से उन पर नियंत्रण लगा दिया गया था कि अखबारों में कम बयान दो, ओबीसी मुद्दों और हिन्दू धर्म की बुराइयों पर कम बोलो, क्षेत्र में कम निकलो, आरक्षण मुद्दे पर मत बोलो, आदि-आदि। 1996 से बीस साल तक लगातार पार्टी के प्रति वफादार रहने वाले ओबीसी नेता की ऐसी दुर्गति हुई कि आज तक वह अपने पुराने गौरव के करीब न पहुंच पाए। उन्हें बाध्य होकर कहना पड़ा कि मायावती दलित की नहीं, दौलत की बेटी हैं।

आइए थोड़ा प्रारम्भ से कांशीराम द्वारा अम्बेडकर जयंती के दिन, 14 अप्रैल 1984 को स्थापित बसपा के कर्मठ नेताओं के प्रति सुप्रीमो के रुख की समीक्षा की जाए। बसपा को खड़ा करने में कांशीराम की साइकिल यात्रा और बामसेफ के जमीनी कार्यकर्ताओं का सहयोग महत्वपूर्ण रहा है। बसपा का राजनैतिक सफर शुरू हुआ। 1984 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 10 लाख के लगभग वोट मिले थे जो नवम्बर 1989 में साठ लाख के करीब पहुंचे और उत्तर प्रदेश से दो और पंजाब से एक सांसद चुने गए। यानी बसपा की यात्रा लोक सभा से प्रारम्भ हुई जहां न तो अभी मायावती पहुंची थीं, न उनका कोई योगदान था। बसपा की तत्कालीन वैचारिक प्रतिबद्धता की कमी और जातिद्वेष पर केन्द्रित नारों को देखते हुए सीपीआई-एमएल के महासचिव विनोद मिश्र ने कहा था कि ऐसी पार्टियों का अंत कांग्रेस या भाजपा जैसी दक्षिणपंथी पर्टियों में ही होता है। आज उनकी यह बात सही मालूम पड़ रही है।

मायावती की बहुजन वैचारिकी

उत्तर प्रदेश के दो सांसदों में एक आजमगढ़ कचहरी के वकील, रामकृष्ण यादव भी थे, जिन्हें बसपा की दिशाहीनता देखकर जल्द राजनैतिक सन्यास ले लेना पड़ा। 1973 से बामसेफ से जुड़े राजबहादुर बहुजन वैचारिकी के मजबूत स्तम्भ थे और कांशीराम से जुड़े बसपा संस्थापकों में से एक थे। यही कारण रहा कि 1993 में सपा-बसपा की संयुक्त सरकार में वह समाज कल्याण मंत्री बने। राजबहादुर का संबंध मायावती से बहुत जल्द टूट गया और वह पार्टी से निष्कासित कर दिए गए।

टांडा के डॉ. मसूद अहमद, कांशीराम के जमाने से बसपा में रहे। 1985 से 1993 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी भी रहे। 1993 की सपा-बसपा सरकार में शिक्षा मंत्री रहे लेकिन जल्द मायावती द्वारा उनको बाहर का रास्ता दिखाया गया। 1994 की सर्दियों की रात में उनको पार्टी से निष्कासित कर रात में ही उनके सरकारी आवास को खाली करा लिया गया और सामान सड़क पर फेंकवा दिया गया। डॉ. मसूद जैसे कद्दावर मुस्लिम नेता की ऐसी बेइज्जती शायद ही किसी पार्टी की गरिमा के अनुकूल हो या देखी गयी हो। तब डॉ. मसूद ने कहा था कि मायावती ने बाबा साहब भीमराव आंबेडकर और कांशीराम की विरासत, उन्हीं सवर्ण पशुओं के हाथ गिरवी रख दी, जिनके खिलाफ ये जिन्दगी भर लड़ते रहे। तब तक पैसे लेकर टिकट देने की मायावती की नीति, जब तब अखबारों की सुर्खियां बनने लगीं थीं। 

पासी समाज से आने वाले आरके चौधरी भी बसपा के संस्थापकों में से एक थे और 1993 की संयुक्त सरकार में मंत्री रहे। मायावती के बेहद करीबी माने जाने वाले आरके चौधरी को कभी बसपा से बाहर का रास्ता देखना पड़ेगा, किसी ने सोचा भी न था। मगर 2001 में उन्हें भी अपमान का घूंट पीना पड़ा। उनका निष्कासन भी अपमानजनक तरीके से हुआ। बाद में 11 साल बाद अप्रैल 2013 में वह जरूर बसपा में शामिल हुए मगर जून 2016 में एक बार फिर पार्टी से बाहर कर दिए गए। तब उन्होंने बसपा में अपनी वापसी को भूल बताया था।

दीनानाथ भाष्कर बसपा के शुरुआती नेताओं में से एक थे। 1993 की संयुक्त सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे मगर 1996 में ही वह मायावती से बगावत कर अलग हो गए। बाद में सपा से लेकर भाजपा तक की यात्रा किए।

बसपा के संस्थापक एवं कांशीराम के दाहिने हाथ रहे जंगबहादुर, सोनेलाल पटेल, रामसमुझ और विधानसभा अध्यक्ष रहे दिवंगत बरखूराम की कहानी भी कम पीड़ादायक नहीं हैं। ये सभी बहुजन मायावती के सामंती अकड़ के शिकार हुए। कुछ ने अपनी पार्टियां खड़ीं की तो कुछ अन्य दलों में समाहित हुए।

बाबू सिंह कुशवाहा की कहानी अभी भी बहुत हद तक सामने नहीं आ पायी है। किसी जमाने में वही एक मात्र नेता थे, जो मायावती के मालएवेन्यू आवास में रहकर पार्टी गतिविधियों को संचालित करते और प्रतिदिन पूरे प्रदेश के सांगठनिक गतिविधियों की जानकारी बहन जी को देते रहते थे। सतीश मिश्र के आने के बाद बसपा के ओबीसी नेताओं की बदकिस्मती शुरू हुई। मायावती की प्राथमिकताएं बदलने लगीं। अपने विश्वस्त, स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी की शादी में जहां मायावती महज 15 मिनट के लिए पधारीं वहीं पार्टी में नए-नए आए सतीश मिश्र की बेटी की शादी में वह तीन बार उनके घर पहुंचीं। सतीश मिश्र ने बहुत कम समय में अपनी मां के नाम पर एक विश्वविद्यालय स्थापित करा लिया यद्यपि उनकी मां का बहुजन वैचारिकी से कोई संबंध नहीं था। शिक्षा के क्षेत्र में सावित्री बाई फुले जैसा अनुकरणीय नाम होते हुए बहन जी ने ऐसा, मात्र सतीश मिश्र को खुश करने के लिए किया।

इन सब के बावजूद अभी भी सतीश मिश्र की माल एवेन्यू पर नियंत्रण रखने के रास्ते में बाबूसिंह कांटा बने हुए थे। एक दिन राजनैतिक कुचक्र से सत्ताइस सालों से मायावती के करीबी, बाबू सिंह लपेट लिए गए। देखते ही देखते पांच चिकित्सा अधिकारियों की हत्याएं हुईं। उनमें से एक उप मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. सचान की मौत, पुलिस हिरासत में हो गयी। उस समय स्वास्थ्य मंत्री थे सतीश मिश्रा के रिश्तेदार अनंत कुमार मिश्र, जिनका इस्तीफा ही अंतिम दण्ड रहा। हत्या के एक आरोप में बाबू सिंह का नाम उछाला गया लेकिन अपुष्ट आरोप दिखते ही एन.आर.एच.एम. घोटाले का जिन्न सिर पर बैठा दिया गया। तो इस प्रकार बाबू सिंह पर मामला केवल घोटाले का चलाया गया।

अब बचे थे नसीमुद्दीन सिद्दीकी। 1991 से बसपा राष्ट्रीय महासचिव रहे नसीमुद्दीन कभी मायावती के सबसे विश्वासपात्र माने जाते थे। कहा तो यह भी जाता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य को किनारे लगाने में सतीश मिश्रा के साथ नसीमुद्दीन भी लगे थे। 

बसपा खजाने की वृ़द्धि में उनका महत्वपूर्ण हाथ था।  कहा जाता है कि अपनी वसूली का अधिकांश हिस्सा वे पार्टी फंड में ही देते थे। 2018 में उन्हें भी किनारे लगा दिया गया। उसके बाद कई मुस्लिम नेताओं को पार्टी छोड़ना मजबूरी बन गया। सहारनपुर के लियाकत अली उनमें से एक थे। जोनल कोआर्डिनेटर रहे दद्दू प्रसाद और जुगल किशोर की परिणति पाठक जानते ही होंगे। 

मायावती के पूरे राजनैतिक कैरियर पर गौर करें तो उनकी सम्पूर्ण गतिविधियों में सौम्यता और सहजता का अभाव रहा है। सदियों से दमित समाज की आकांक्षाओं के लिए वह एक बड़ी उम्मीद थीं। मनुवाद की विरोधी मायावती स्वयं अपने राजनैतिक साथियों और कार्यकर्ताओं से पैर छुआने में कभी परहेज न कीं। समता और बंधुत्व की कोई भी दृष्टि बहुजन सरोकार से जुड़ी पार्टी में दिखी नहीं। बहुजन मिशन से जुड़े लाखों कार्यकर्ताओं के साथ भाईचारे का सम्बन्ध बना कर, योग्य और समर्पित कार्यकर्ताओं को टिकट देकर इस पार्टी को दीर्घजीवी बनाया जा सकता था। दलित, ओबीसी और मुस्लिम गठजोड़ में इतनी ताकत थी कि देश की बहुसंख्यक आबादी के मुक्ति की उम्मीदों को पूरा किया जा सकता था मगर यहां तो बहुजन जनाधार की मुख्य जातियों यथा कुर्मी, कोइरी, काछी, शाक्य, सैनी, राजभर, यादवों और पसमांदा मुसलमानों के नेताओं को एक-एक कर किनारे लगा दिया गया।

बसपा को ध्वस्त करने में स्वयं मायावती का बहुत बड़ा हाथ है। उन्होंने किसी भी मजबूत नेता को उभरने नहीं दिया। जिसमें भी संभावनाएं दिखीं, उसके पर अकारण कतर दिए गए। आज एक बार फिर बहुजनों को एक ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया गया है, जहां से उनका रास्ता भविष्य की गर्त में है। दलितों की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को न तो मायावती ने अपने कार्यकाल में कभी छुआ और न पुलिस प्रशासन में ऐसे बुनियादी सुधार की ओर बढ़ीं जो आगे चलकर दलित उत्पीड़न को कम कर सके। पैसे से टिकट वितरण में गरीब समर्पित कार्यकर्ता पीछे धकेल दिए गए और पैसे वालों ने बहुजन झण्डे तले सत्ता की कुर्सी थाम ली। 

वर्तमान में मिशनरी कार्यकर्ताओं का अभाव हो चुका है।लगभग सभी कद्दावर नेता किनारे लगा दिए गए हैं और बहन जी ने ट्वी ट के जरिए राजनीति की नई पारी में यह जाहिर कर दिया है कि अब उन्हें बहुजन वैचारिकी से कोई लेना-देना नहीं हैं। तमाम दलित उत्पीड़न मामलों में उनकी चुप्पी, इस अवधारणा को पुख्ता कर रही है। वह आगामी चुनाव में भाजपा को मदद पहुंचाने की ओर बढ़ती नजर आ रही हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार और बंगाल के चुनावों में भी उनकी यही रणनीति रही । वह जानती हैं कि अब उनके द्वारा बहुजन वैचारिकी को सत्ता तक नहीं पहुंचाया जा सकत। इसलिए वह केन्द्रीय सत्ता की सहयोगी भूमिका में अपने कुनबे की हिफाजत तक स्वयं को समेट लेने की नीति पर चल रही हैं। बहुजनों को उन्होंने अकेला छोड़ दिया है। ऐसे में अपनी मुक्ति और हक-हकूक की लड़ाई लड़ने वाले बहुजनों को अलग दिशा अपनानी पड़ेगी।

     

टिप्पणियाँ