मैं खोज में हूँ !




मंजुल भारद्वाज 


मैं खोज में हूँ , खोज रहा हूँ अपने अंदर , अपने आस पास “इंसानियत” ! उलझन ... उलझनों को सुलझाने की युक्ति/तरकीब खोज रहा हूँ ! खोज रहा हूँ सिरे “इंसानियत” और शासन व्यवस्था के मौलिक बिन्दुओं के ... ये दोनों ऐसे उलझे हैं की “सुलझने” के नाम पर और उलझ रहे हैं ... पैदा होते हैं “होमोसेपियन” के रूप में . “होमोसेपियन” यह हमारी “जात” है ऐसा विज्ञान का मत है .... तो हम “जाति” और वर्ग में क्यों बंट जाते हैं . शायद यह “शासन” व्यवस्था का मूल है !

खोज रहा हूँ कि कब यह “होमोसेपियन” इंसान बन गया यानि मात्र अपने जैसे रूप को पैदा करने की उसकी भूमिका में यह बदलाव कैसे आया कि मेरा होना केवल अपने जैसे ‘जन’ पैदा करना मात्र नहीं है उसके आगे मेरी “भूमिका” है .

खोज रहा हूँ कि कैसे “शासन” करने की प्रणाली जो ‘कार्य’ आधारित थी वह ‘जात’ की रुढी बन गयी .. ‘जात’ की रुढी वर्ग बन गयी ..कब वर्ग क्लास और मास हो गए ...खोज रहा हूँ क्लास और मास के द्वंद्व को . न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण और क्रिया – प्रतिक्रिया के सूत्र पर क्लास और मास को समझने की प्रक्रिया के द्वंद्व में हूँ ... मास पार्टिकल हमारा अस्तित्व है तो क्लास क्या है ? या क्लास प्रभुत्व की महत्वाकांक्षा है , आधिपत्य की पराकाष्ठा है , अपने ही जैसे प्राणियों में श्रेष्ठता की होड़ है ...या हमारा कानाबिज स्वरूप ,मनुष्य को खाने वाला मनुष्य .. आदम भक्षक रूप जहाँ हम अपने ही रक्त ..मांस ...का सेवन करने को अभिशप्त हैं .. शोषण और प्रताड़ना का मापदंड है क्लास ! और शोषित ...दमित ...प्रताड़ित होने का नाम है “मास” !

खोज रहा हूँ सिरे मास और क्लास के ...लेकिन ये सिरे सुलझने की बजाय और उलझ रहे हैं . हर एक मोड़ पर और उलझ जाते हैं ...ये मोड़ है ..विकास का ...विकास का अर्थ क्या ? ...सुविधा ..सम्पन्न भोग विलास का जीवन ! जीने के लिए भौतिक सुविधाओं का होना या बेहतर “इंसानी” प्रक्रियाओं , प्रवृत्तियों का सुदृढ़ होना या बलिष्ट होना ... खोज रहा हूँ ...

खोज रहा हूँ अपने अंदर ..अपने इर्दगिर्द .. अगला मोड़ है विज्ञान और तकनीक का ? यह विज्ञान का उद्देश्य क्या है ? मानवीय मस्तिष्क में मौजूद धुंधलके के जालों को साफ़ करना या अपने सिद्धांतों पर बनी तकनीक के जरिये उसे घोर अंधकार में धकेल देना .. तकनीक से उत्पन्न संसाधनो के भ्रम जाल में फंसाकर   उसे “पशुता” के बीहड़ में कैद कर देना ...खोज रहा हूँ उन सिरों को जो गर्भ के गर्भ तक ले जाएं..जो गर्भ के बाहर और अंदर तक के रहस्य से पर्दा हटा दे ...

खोज रहा हूँ जो “मनुष्यता” और “इंसानियत” के भेद को खोल दे .. “इन्सान और इंसानियत” के ढ़ोंग से मुखौटा हटा दे .. खोज रहा हूँ ..इस गर्भ के सिरों को गर्भ में... खोज रहा हूँ ...



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