पुलिस और नगर निगम कर्मचारियों ने किया शव का अन्तिम संस्कार

अब हवा के लिए जंग 

साकेत संत मौर्य 

लखनऊ।  कोविड से लड़ने में हमारी क्षुद्राताएं सामने आ गयी हैं। आस पड़ोस में कोई बुजुर्ग मरता है तो पड़ोसी अपनी खिड़की दरवाजे बंद कर लेते हैं। ऐसा जताते हैं कि उन्हें पता ही नहीं। घर वाले किसी तरह शव को एम्बुलेंस तक पहुंचाते हैं। कोरोना सिर्फ़ इंसान को ही नहीं हमारे रिश्तों को भी संक्रमित कर रहा है। इस महामारी में आदमी के साथ ही रिश्तों की भी मौत हो रही है। संक्रमित होते ही अपने पराए होते जा रहे है। सामाजिक रिश्तो की परिभाषा ही बदल गयी है। इस भयानक संकट के दौर ने समाज की सारी विद्रूपताए चौतरफ़ा उग आयी है। 

जीवन के मायने बदल गए है। मौत सिर्फ़ अंकगणित हो गयी है। हमारी संवेदनाएँ मर गयी है। लोगों का असमय जाना भी अब पथराए मन को परेशान नहीं करता। इस संकट में हम एक दूसरे से शारीरिक रूप से नहीं मानसिक रूप से भी दूर हो गए है।लगता है कोरोना के बाद की दुनिया और भयावह होगी। 

कोरोना सिर्फ़ इंसान को ही नहीं हमारे रिश्तों को भी संक्रमित कर रहा

इस शताब्दी की शुरुआत से हम पानी के लिए लड़ रहे थे। अब हवा के लिए जंग हो रही है। हवा की भी कालाबाज़ारी हो रही है। कफ़न चोर तो पकड़े ही गए है। दवाएं ब्लैक में मिल रही है। बूढे मॉं बाप अगर इस महामारी से बच भी गए तो बच्चे उन्हे घर ले जाने को तैयार नहीं है। मरने वालों के परिजन उसका शव लेने नहीं आ रहे है। भरापूरा परिवार होने के वावजूद व्यक्ति का अंतिम संस्कार लावारिस की तरह हो रहा है। अस्पताल की जगह श्मशान का विस्तार हो रहा है। एक आत्मीय के जाने के आंसू रूकते नही। तब तक दूसरे की खबर आती है।लग रहा है हम एक बड़े श्मशान में बैठे है, जो इसके बाद हवा पानी के लिए युद्ध भूमि में तब्दील होगा। 

एक विचार है कि कोरोना के आगे सरकार फेल हो गयी

सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते है। तस्वीर भयावह है। हैदराबाद के एक अस्पताल के कोरोना वार्ड के पैंतीस मरीज़ ठीक हो गए। पर उनके परिजन रिश्तेदार उन्हें लेने नहीं आए, क्योंकि घर में छोटे बच्चे हैं परिवार जोखिम नहीं लेना चाहता। मथुरा के गोवर्धन में एक बेटी बुखार के चलते मृत अपने पिता की अर्थी को कंधा देने के लिए गुहार करती रही, बिलखती रही, मगर पड़ोसियो ने दरवाजे बंद कर लिए। उन्हे पहचानने से इंकार कर दिया। अंतत: पुलिस आई, शव का अंतिम संस्कार कराया। लखनऊ में यही संकट पत्रकार बिरादरी को देखना पड़ा। देश के नामचीन पत्रकार रहे एसपी सिंह के भतीजे चंदन प्रताप सिंह की लखनऊ में कोरोना से मौत हुई। गोमतीनगर के उनके घर में उनकी कोरोना से मृत देह बैकुंठ धाम जाने के लिए चार कंधों का इंतजार करती रही, मगर कोई नही आया। न परिवार। न रिश्तेदार। आखिरकार लखनऊ के गोमतीनगर की पुलिस ने उनका अंतिम संस्कार किया। एक जज साहब के बेटे ने अपने पिता का मृत शरीर देने से इनकार कर दिया आखिरकार प्रशासन को अंतिम संस्कार करना पड़ा।देश के हर हिस्से से इसी तरह की खबर आ रही है। कोरोना संक्रमित की मौत हो गयी, परिवार के लोग शव लेने नहीं आए। पुलिस और नगर निगम कर्मचारियों ने शव का अन्तिम संस्कार किया।समूची दुनिया को एक कुटुम्ब मानने वाले इस देश में रिश्तो पर कोरोना भारी पड़ रहा है।

आज नहीं तो कल कोरोना तो चला ही जाएगा। पर जो छोड़ जायगा, उसमें हमारी प्रकृति बदल जाएगी। समाज बदल जायगा। नदियाँ और वनस्पतियॉं अपना स्वभाव बदल लेंगी। संवेदनाएँ बदल जाएंगी। रिश्ते बदल जायेंगे। आदतें बदल जाएँगीं। फिर आख़िर बचेगा क्या?

एक विचार है कि कोरोना के आगे सरकार फेल हो गयी है। सरकार और सिस्टम पर सवाल उठाना आपका हक है पर ये भी सोचिए कि सरकार क्या कर लेगी?, मंत्री क्या कर लेंगे ?, मशीनरी क्या कर लेगी, जब समाज की संवेदनाएँ ही मर गयी हैं। कोविड काल में समाज नंगा हो गया है। कोई कोशिश नहीं होती कि सुरक्षित रहते हुए दुखी लाचार बेसहारा के साथ खड़े हुआ जाए। आख़िर डॉक्टर और पुलिस वाले तो अपने काम को अंजाम दे ही रहे हैं। मत भूलिए सरकार भी इसी समाज का हिस्सा है। जितेंद्र सिंह शंटी  कोरोना काल में दिल्ली में लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार कराने के अभियान में जुटे हैं। 

संक्रमित होते ही अपने पराए होते जा रहे, सामाजिक रिश्तो की परिभाषा ही बदल गयी

शंटी ने जो बताया, वो दंग करने वाला था। उनके मुताबिक उन्होंने पिछले एक महीने में अब तक जिन 1352 शवों का अंतिम संस्कार किया है, उनमें 153 ऐसे शव थे। जिन्हें लोग श्मशान घाट के दरवाजे पर छोड़ आए थे। कोई उन्हें पूछने वाला नही था। ये है समाज के भीतर ध्वस्त हो चुकी संवेदनाओं की विचलित करने वाली तस्वीर।

कोई अपने किरायेदार को कोविड होने पर घर से बाहर निकाल रहा है।कोई दवाएं और सिलेंडर ब्लैक कर रहा है। कोई बेटा अपने बाप के अन्तिम संस्कार में शामिल नहीं हो रहा है। कितने बड़े लोग अपने परिजनों के बिना अंतिम गति को प्राप्त कर रहे है। क्या समाज की आत्मा मर गई है? हम अपने इर्द गिर्द ऐसे ही संवेदनहीन लोगों से घिरे हैं। जब समाज ऐसा अमानवीय व्यवहार कर रहा हो तो उन्हें नियंत्रित करने वाला तंत्र कैसे मानवीय हो सकता है? कैसे तय होगी तंत्र की जवाबदेही?  

उस महान संस्कृति को याद रखिए जिसके हम ध्वजवाहक हैं। मृत्यु के भय से निकलना होगा ।वो तो आनी ही है। पर तब तक हम यह तो समझे कि हम क्यों आए थे इस दुनिया में? हमारी क्या भूमिका है।यह महामारी किसी एक के बस की नहीं। विषाणु रक्तबीज की तरह खुद को फैला रहा है। उससे लड़ने वाला तंत्र भी उतना ही विशाल बनाना होगा। वो बनेगा हमारे आप के साथ खड़े होने से। 

एक दूसरे की मदद करने से। यह सही है कि सरकारें जिम्मेदार होती हैं। उनसे उस वक्त बात करिएगा, जब वोट देने का समय आए। अभी इसी सरकार इसी तंत्र की मदद से लड़ाई लड़नी होगी। पहले हम खुद को बदलें तभी व्यवस्था बदलेगी। महामारी ने हमें यह सोचने को मजबूर हो गए है कि हमारी ज़रूरत अस्पताल है या मंदिर मस्जिद। समूची दुनिया में मंदिर, मस्जिद, चर्च बन्द हो गए। केवल अस्पताल ही खुले रहे। इस पर भी अगर हम समझने को तैयार नहीं हैं, तो शवो की अंतहीन यात्रा चलती रहेगी। हम सभ्यता का मरना देखेंगे। 

पहाड़ सी विपत्ति के बाद भी आपसी कटुता महामारी की तरह बढ़ रही है। फ़ेसबुक, ट्विटर देखिए तो असहिष्णुता इस विपदा में भी कम नहीं हुई है। कोई विचारधारा को गाली दे रहा है। तो कोई सिस्टम को। समझ नहीं आ रहा है कि इस सिस्टम का माई बाप कौन है। मित्रों, हम बचेंगे तो विचार बचेगा, तभी विचारधारा भी बचेगी। पहले ख़ुद को तो बचा लीजिए, फिर जनतंत्र की सोचिएगा। वाम-दक्षिण-मध्य का निपटारा भी तब हो जायगा। 

यह वक्त आपसी तनाव का नही है। एकजुट हो लड़ने का है। हमने प्रलय झेला है। उसके बाद फिर मनुष्यता उठी और खड़ी हुयी। हम इस विपत्ति से भी निकलेंगे। मनुष्यता की जिजीविषा का कोई तोड़ नही है। कुंवर नारायण लिख गए हैं- कोई भी दुख मनुष्य के साहस से बड़ा नही, वही हारा जो लड़ा नही। इस बार की लड़ाई वैकल्पिक नहीं अनिवार्य है। मनुष्यता ने इससे भी बड़े संकट देखे हैं। मनुष्यता की जीत नियति की जीत है और वो होकर रहेगी मगर संवेदनाओं को जिंदा रखने की जिम्मेदारी हमारी है।

टिप्पणियाँ