मानवता व इंसानियत ही परम धर्म

घूमने के शौकीन एक डाक्टर दंपति संजय और सुधा भोपाल में रहते थे। दोनो ने एक साथ डाक्टरी की पढ़ाई की थी और उसी दौरान दोनों में प्रेम हो गया था। डाक्टर बनने के बाद दोनों परिवारों की रजामंदी से उनका विवाह हो गया और वे दोनों भोपाल शहर में रह कर एक निजी चिकित्सालय बैंक से लोन लेकर चलाने लगे जोकि कुछ ही महीनों में बहुत अच्छा चल निकला। चूंकि विवाह के दो साल ही हुए थे और उनकी अभी तक कोई संतान नही थी, इसलिए वे दोनों अपने घूमने का शौक पूरा करने के लिए जब भी अवकाश मिलता इधर उधर पास के इलाकों में घूमने निकल जाते थे। 

एक दिन उन्होंने उज्जैन में महाकाल, हरसिद्धि आदि मंदिरों का घूमने का कार्यक्रम बनाया और फिर क्या था, वे दोनों अपनी कार से यात्रा पर रवाना हो गए। करीब 100 किलोमीटर की यात्रा करने के बाद उनको चाय पीने की तलब हुई पर चाय की कोई दुकान नही दिख रही थी। तभी कुछ ओर चलने पर सड़क के किनारे एक छोटा सा मकान दिखाई दिया जिसके आगे वेफर्स के पैकेट लटक रहे थे ।उन्होंने विचार किया कि यह कोई चाय की दुकान है । संजय जी ने वहां पर कार रोकी,  दुकान पर गए , कोई नहीं था ।आवाज लगाई , अंदर से एक महिला  निकल कर के आई। 

उसने पूछा क्या चाहिए ,भाई  ?

संजय जी ने दो पैकेट वेफर्स  के लिए और कहा बहन जी दो कप चाय भी बना दीजिए ।थोड़ी जल्दी बना देना , हमको दूर जाना है  । पैकेट लेकर वे कार में बैठ गये क्योंकि वहां कुर्सियां नही थी। 

दोनों वेफर्स के पैकेट खोल कर खाने लगे। चाय अभी तक  आई थी। संजय जी ने कार से निकल कर आवाज लगाई । थोड़ी देर में वह महिला अंदर से आई और बोली -भाई बाड़े में तुलसी लेने गई थी , तुलसी के पत्ते लेने में देर हो गई ,अब चाय बन रही है ।

थोड़ी देर बाद एक प्लेट में दो मैले से कप लेकर  वह गरमा गरम चाय लाई। मैले कप को देखकर संजय भाई एकदम से  अपसेट  हो गए और कुछ बोलना चाहते थे परंतु सुधा जी ने हाथ पकड़कर उनको रोक दिया। चाय में से अदरक और तुलसी की सुगंध निकल रही थी ।दोनों ने चाय का एक  सिप  लिया  । ऐसी स्वादिष्ट और सुगंधित चाय जीवन में पहली बार उन्होंने पी ।उनके मन की  हिचकिचाहट दूर हो गई।

उन्होंने महिला को चाय पीने के बाद पूछा कितने पैसे ?

महिला ने कहा - तीस रुपये। उन्होंने कहा कि हमने तो वैफर्स  के पैकेट भी लिए हैं, आप पैसे कम मांग रही हैं।महिला बोली यह पैसे  उसी के हैं ।चाय के पैसे नहीं लिए ।अरे चाय के पैसे क्यों  नहीं लिए ?जवाब मिला ,हम चाय नहीं बेंचते हैं।  यह होटल नहीं है  ।

-फिर आपने चाय क्यों बना दी ?

- अतिथि आए ,आपने चाय मांगी ,हमारे पास दूध भी नहीं था । यह बच्चे के लिए दूध रखा था ,परंतु आपको मना भी कैसे करते ।इसलिए उसके दूध की चाय बना दी ।

-अब बच्चे को क्या पिलाओगे ?

-एक दिन दूध नहीं पिएगा तो मर नहीं जाएगा । उसके पापा बीमार हैं।  वह  शहर जा  करके दूध ले आते ,पर उनको कल से बुखार है ।आज अगर ठीक  हो  जाएगे तो कल सुबह जाकर दूध  ले आएंगे। संजय जी उसकी बात सुनकर  सन्न  रह गये। इस महिला ने होटल न होते हुए भी अपने बच्चे के दूध से चाय बना दी और वह भी  केवल इसलिए कि उसने मुझे अतिथि समझा। उन्हें ऐसा लगा कि संस्कार और सभ्यता में यह महिला मुझसे बहुत आगे हैं ।

 उन्होंने कहा कि हम दोनों डॉक्टर हैं ,आपके पति कहां हैं बताएं ।महिला उनको  भीतर ले गई  । अंदर गरीबी  पसरी  हुई थी ।एक खटिया पर सज्जन सोए हुए थे । बहुत दुबले पतले थे ।संजय जी ने उनका मस्तक छूआ ।माथा  और हाथ गर्म हो रहे थे और कांप  रहे थे। संजय जी कार से दवाई का अपना बैग लेकर आए । उनको दो-तीन टेबलेट निकालकर के खिलाई और कहा- कि इन गोलियों से कुछ आराम तो होगा पर इनका रोग ठीक नहीं होगा । मैं पीछे शहर में जा कर कुछ इंजेक्शन और अन्य दवाईयां लेकर आता हूं ।सुधा जी को उन्होंने मरीज के पास बैठने का कहा ।आधे घंटे में शहर से दवाईयां ,इंजेक्शन, कुछ फल, बिस्कुट और दूध के कुछ पैकेट भी लेकरआये। मरीज को इंजेक्शन लगाया और उसे फल खाने को दिये। महिला ने तुलसी और अदरक की चाय फिर बनाई। 

दोनों ने  चाय पी और उसकी तारीफ की। करीब 2 घंटे में जब वह व्यक्ति कुछ ठीक हुआ,  तब वह दोनों  वहां से आगे बढ़े। दूसरे दिन उज्जैन से लौटते समय बच्चे के लिए बहुत सारे खिलौने और दूध की थैली, बिस्कुट और फल लेकर  आए। उस घर के सामने पहुंच कर ,महिला को आवाज लगाई , तो  दोनों  बाहर निकल कर  उनको देख कर बहुत  खुश  हो गये। उन्होंने कहा कि आप की दवाई से कल रात को ही बिल्कुल स्वस्थ हो गये ।संजय जी ने बच्चे को खिलौने दिए जिससे बच्चा बहुत खुश हुआ। फिर से चाय बनी, बातचीत हुई ,अपनापन स्थापित हुआ। संजय ने अपना एड्रेस कार्ड  दिया और कहा कि जब भी भोपाल आओ तो जरूर मिलना और फिर चाय पीकर वे वहां से अपने शहर की ओर लौट गये ।शहर पहुंचकर संजय जी ने उस महिला  की बात याद रखी और फिर  एक फैसला लिया। अपने अस्पताल में रिसेप्शन पर बैठे हुए व्यक्ति से कहा कि अब आगे से आप जो भी मरीज आयें, केवल उसका नाम लिखेंगे ,फीस नहीं लेंगे ।फीस मैं खुद लूंगा और जब मरीज आते तो  अगर वह मरीज होता तो उससे फीस नही लेते। केवल संपन्न मरीज से ही फीस लेते। एक दिन एक डाक्टर मित्र ने उनसे पूछा कि आप गरीबों से फीस क्यों नही लेते? इस पर संजय जी ने उत्तर दिया कि मैं अपने जीवन में हर परीक्षा में मेरिट में पहली पोजीशन पर आता रहा ।एमबीबीएस में भी ,एमडी में भी गोल्ड मेडलिस्ट बना ,परंतु सभ्यता संस्कार और अतिथि सेवा में वह गांव की महिला जो बहुत गरीब है ,वह मुझसे आगे निकल गयी। तो मैं अब पीछे कैसे रहूं? इसलिए मैं अब अतिथि सेवा और मानव सेवा में भी गोल्ड मेडलिस्ट बनूंगा । इसलिए मैंने यह सेवा प्रारंभ की और मैं यह कहता हूं कि हमारा व्यवसाय मानव सेवा का है। सारे चिकित्सकों से भी मेरी यही अपील है कि वह सेवा भावना से काम करें ।गरीबों की निशुल्क सेवा करें ,उपचार करें ।यह व्यवसाय धन कमाने का नहीं ।

परमात्मा ने मानव सेवा का अवसर प्रदान किया है , जिसमें मैं और मेरी पत्नी पीछे नही रहेंगे। उस मित्र ने उनकी प्रसंशा करते हुए कहा कि मैं भी आगे से ऐसी ही भावना रखकर  चिकित्सकीय  सेवा करुंगा। 

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