भारत के विकास की डोर हैं बेटियां
कमलेश डाभी
सबसे महान होती है बेटियां
हम सबकी शान होती है बेटियां
जिस दिन से घर में आती है बेटियां
माता-पिता की इज्जत बन जाती है बेटियां
भारत के विकास की डोर हैं बेटियां
भारत को बुलंदियों पर पहुंचा रहीं हैं बेटियां
सीता, सावित्री, दुर्गा की प्रतिरूप है बेटियां
लक्ष्मी, सरस्वती, राधा की रूप है बेटियां
ऊपर लिखी कुछ पंक्तियां भले ही बेटियों के संबंध में वर्णित किया गया है लेकिन वास्तव में बेटियों के अस्तित्व के आगे यह पंक्तियां भी छोटी पड़ जाती हैं। जो बेटी इस पुण्य धरा पर किसी परिवार के लिए, मां-बाप के लिए, देश और समाज के लिए सीता, सावित्री, दुर्गा की प्रतिरूप हो और जिसमें लक्ष्मी, सरस्वती और राधा तीनों का रूप दिखता हो उसका वर्णन भला यह चंद पंक्तियां कैसे कर सकती हैं। यह हमारा भारतीय समाज जहां अगर निष्पक्ष होकर बात की जाए तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि इस पुण्य भारत भूमि पर बेटियों के साथ सदियों से भेदभाव होता आया है।
एक तरफ तो बेटियों को लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा का दर्जा दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ जब बेटियों को सशक्त बनाने की बारी आती है, घर से बाहर भेजने की बारी आती है, समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की बारी आती है, राष्ट्र की मुख्यधारा में स्थान देने की बारी आती है, बेटियों के कंधों पर जिम्मेदारी देने की बारी आती है, तब वही लोग जो बेटियों को दुर्गा की प्रतिमूर्ति बताते थे, कहने लगते हैं अरे यह तो बेटी है, घर से बाहर कैसे भेजे? इसके कंधों पर जिम्मेदारी कैसे दें? मेरे मत में भारत पुरातन काल से ही वैचारिक रूप से संपन्न राष्ट्र रहा है और इसलिए एक संपन्न वैचारिक राष्ट्र को कदापि यह शोभा नहीं देता कि वह लिंग को कमजोरी और मजबूती का पैमाना माने।
ऐसे राष्ट्र को यह कभी शोभा नहीं देता की लड़की को पुरुषों की तुलना में कमजोर बताकर उसे पंक्ति में पुरुषों से पीछे खड़ा कर दे और उसके आत्मबल को इतना कमजोर कर दे कि उसे पूरी जिंदगी पुरुषों के साथ और उसकी शर्तों पर विवश होकर जीना पड़े। एक शक्तिशाली परम वैभव संपन्न राष्ट्र की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि वहां की बेटियों को समाज में उसका उचित अधिकार मिले। उसके आत्मबल को इतना दृढ़ बनाया जाए की वह किसी सहारे के आश्रय अपनी जिंदगी ना कांटे, अपितु वह इतनी मजबूत इच्छा शक्ति की हो ताकि मुसीबत के समय में जरूरतमंदों को सहारा देने के लिए अपना कंधा आगे कर सके।
आज के युवाओं में बहुत हद तक इस बात को स्थापित कर दिया गया है कि लड़कियां सबसे कमजोर हैं। इस समाज का नेतृत्व केवल तुम ही कर सकते हो, लड़कियां नहीं कर सकती। आज युवाओं के लिए आवश्यक है की इस आधारहीन विचार को अपनी मस्तिक से परित्यक्त कर दें। आज का युवा और आज का समाज अगर इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है कि समाज और राष्ट्र निर्माण में जितनी भूमिका एक पुरुष की है उतनी ही अहम भूमिका एक बेटी की भी है तो समाज में परिवर्तन स्वतः दिखने लग जाएगा। इस तथ्य को कोई शिक्षित व्यक्ति झुठला नहीं सकता कि किसी भी देश में महिला और पुरुष की आबादी का अनुपात लगभग बराबर का होता है और लगभग आधी आबादी को मुख्यधारा और सामाजिक सशक्तिकरण से अलग रखकर किसी भी राष्ट्र को विकास के पथ पर अग्रसर नहीं रखा जा सकता। एक तथ्य यह भी है की पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित कई शिक्षक और विद्वान भी बेटियों को तुलनात्मक रूप से कमजोर सिद्ध करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। हमारे समाज ने एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया हुआ था, जिसमें बेटियों के लिये अवसरों की भारी। कमी थी। लेकिन अब बेटी घर से बाहर निकल कर अपने सपनों की उड़ान भर रही हैं।
पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर समाज में आगे बढ़ रहीं हैं, अपनी शर्तों पर जीवन जीने की कोशिश कर रहीं हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि भारतीय समाज का नजरिया पिछले कुछ दशकों में बेटी और उसके अधिकार को लेकर काफी बदला है। लेकिन फिर भी आज इस समाज को इस बात पर चिंतन करने की आवश्यकता है कि कोई बेटी जब अपने सपनों की उड़ान भरना चाहे, अपने पैरों पर खड़े होकर समाज का नेतृत्व करना चाहे, बेटे-बेटियों के बीच के भेदभाव को समाप्त कर दोनों को समान अधिकार देने की बात करे तो यह समाज उसकी बातों को स्वीकार करे और उसे प्रोत्साहित करे। हमारे समाज में हर मां अपनी बेटी को एक अच्छी संस्कारी बहू बनने के गुण तो सिखाती है लेकिन वही मां अपनी बेटियों को रानी लक्ष्मीबाई की तरह योद्धा बनना क्यों नहीं सिखाती?
कभी सोचा है आपने? भारतीय परिवार में बेटों को मजबूत बनाने के लिए जिम, कराटे और मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग दी जाती है, जबकि असल में आत्मरक्षा के गुण सीखने की जरूरत बेटियों को ज्यादा होती है। ताकि वह पूरे आत्मविश्वास के साथ घर से बाहर निकले और कोई हैवान हमारी बेटीयों पर नजर डालने के बारे में सोच कर ही कांप उठे। ऐसा करने से बेटियों के साथ दिन-ब-दिन बढ़ते जघन्य अपराध स्वतः ही रुक जाएंगे।
इस समाज ने बेटियों के लिए बच्चे पालना और घर संभालने जैसे कार्य पूर्व से ही निर्धारित कर दिए थे लेकिन इस देश की बेटियों ने सारी बेड़ियों को न सिर्फ तोड़ा बल्कि खुद को सही सिद्ध कर के भी दिखाया। इस समाज को यह समझने में और कितना वक्त लगेगा कि जब शिशु को जन्म देने में माता-पिता दोनों का समान योगदान होता है तो उसे पालने में भी दोनों की बराबर जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। किसी एक पर क्यों सारी जिम्मेदारी थोप दी जानी चाहिए? इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर किसी परिवार का कोई बच्चा बड़ा होकर बुरे कर्मों में लिप्त हो जाता हो उसका भी सारा दोष उसके माता के ऊपर ही मढ़ दिया जाता है कि मां के कारण ही ऐसा हुआ। पिता को यह समाज बड़ी आसानी और चालाकी से दोषमुक्त कर देता है। जबकि वास्तव में माता-पिता दोनों बराबर के दोषी होते हैं।
हम और हमारा समाज इस बात से कभी इंकार नहीं कर सकते कि हमें जब भी अवसर मिला है तब हमने अपने समाज की बेटियों को कमजोर और दुर्बल सिद्ध करने का कोई अवसर गँवाया नहीं है। बहुत कम ही ऐसे अवसर आए हैं जब हमने बेटियों को प्रोत्साहित किया हो, उनका आत्मबल बढ़ाया हो, पर बेटियों की महानता देखिए कि मुश्किल परिस्थितियों में भी सारे भेदभाव और यातनाओं को सहकर भी वह इस समाज से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती रही और समय-समय पर समाज निर्माण की प्रक्रिया में अपना योगदान देती रहीं। हम सावित्रीबाई फुले और रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं को नहीं भूल सकते। इस समाज का दोहरा मापदंड देखिए कि हम इन वीरांगनाओं से प्रेरणा लेने की बात तो करते हैं पर जब उसे वास्तविक जीवन में अपनी बेटियों पर लागू करने की बात आती है तो पीछे हट जाते हैं। कई बेटियां ऐसी हैं जिन्होंने अपने कठोर प्रयासों से बेटियों को उसका अधिकार दिलाने के संकल्प को जीवित रखा है।
वर्तमान समय में ही हमारे समाज में कई ऐसी बेटियां है जिनसे भविष्य प्रेरणा ले सकता है। आज भारतीय मूल की ही बेटी कमला हैरिस अमेरिका की उपराष्ट्रपति हैं। आज भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में ह्यूमन प्रोग्राम का 30 वर्षों से नेतृत्व कर रही डॉक्टर ललिथांबिका हमारे समाज की ही बेटी है। आज भारतीय सेना हो,अर्धसैनिक बल हो या फिर SWAT कमांडो हो, हर जगह हमारी जांबाज बेटियां हाथों में भारी-भरकम बंदूक थामे इस राष्ट्र की रक्षा में जुटी हैं। देश की बेटी हिमा दास, बबिता फोगाट, पीवी सिंधु, साइना नेहवाल, मैरी कॉम, प्रियंका चोपड़ा, लता मंगेशकर, कल्पना चावल, सुनीता विलियम्स को कौन नहीं जानता! खेल, नृत्य से लेकर अभिनय जगत जैसे क्षेत्र में देश की बेटियां राष्ट्र को विश्व पटल पर गौरवान्वित होने का अवसर दे रही हैं।
आज पदम श्री से सम्मानित तमिलनाडु की अम्मा नानामल जो भारत की सबसे वृद्ध योग गुरु हैं। आज वह 90 वर्ष की है आयु में भी लोगों को योग सिखाती हैं। मजबूत इच्छाशक्ति का यह विरला उदाहरण है। आज यह देश अवनी चतुर्वेदी,भावना कांत और मोहना सिंह जैसी बेटियों को सलाम कर रहा है जो आसमान में फाइटर जेट उड़ाते हुए देश की करोड़ों बेटियों की प्रेरणा बन रही हैं।
आप सब में से बहुत कम लोग ही इस बात को जानते होंगे कि मुंबई का माटुंगा रेलवे स्टेशन और जयपुर का गांधीनगर रेलवे स्टेशन पूरी तरह हमारी बेटियों द्वारा संचालित की जाती है। आप अगर ध्यान देंगे तो पाएंगे कि हर वह कार्य जिसे सिर्फ पुरुषों का बताकर महिलाओं के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जाता था, आज बेटियां बखूबी हर उस कार्य को कर रही हैं। फिर चाहे वह खेल में बॉक्सिंग हो, कुश्ती हो, फौज में जाना हो या फाइटर जेट उड़ाना हो। बेटियों को कमजोर आंकने वालों के लिए यह सारे कार्य उनकी मजबूती का प्रमाण है। बेटियों की इस उड़ान को पंख देने में वर्तमान सरकार के कदम की भी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। केंद्र सरकार ने अपने सत्ता संभालने के शुरुआती दिनों में ही "बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ" जैसी योजना शुरू करके इतना तो संदेश दे ही दिया था कि देश की बेटियों को अपने सपने पूरे करने की पूरी आजादी दी जाएगी। उनकी मार्ग में आने वाली तमाम बाधाओं को दूर करने के लिए सरकार ने निरंतर प्रयास किया है।
बेटी के जन्म, शिक्षा से लेकर विवाह तक का खर्च सरकार दे रही है। इस सरकार ने 2019 तक 650 करोड रुपए सिर्फ बेटियों के सशक्तिकरण में खर्च किया है। जो यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यह सरकार बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती, पर सरकार के तमाम प्रयासों का तब तक कोई परिणाम नहीं निकलेगा जब तक यह समाज अपनी दोनों भुजाओं को फैला कर बेटियों को गले नहीं लगाएगा। उन्हें उनका उचित न्याय सम्मत स्थान दिलाने के लिए कृत संकल्पित नहीं होगा। -प्रस्तुति रिपोटर चंद्रकांत सी पूजारी.
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