पत्थरों में प्राण प्रतिष्ठा۔۔

मंजुल भारद्वाज

पत्थरों में प्राण प्रतिष्ठा

एक अजूबा कर्म है

पत्थर को आकार देती हुई

छैनी,हथौड़े की एक एक चोट

शिल्पकार स्वयं सहता है

चुनौती होती है पत्थर

कहीं चूर चूर ना हो जाए

इसलिए शिल्पकार पत्थर में

अपने प्राण प्रतिष्ठित कर

हथौड़ा चलाता है

शिल्प दृश्य है

शिल्पकार अदृश्य

आकार दिखता है

युगों युगों तक

पर क्या पत्थर की ध्वनि

कभी सुनता है शिल्पकार

पत्थर कहता है

मुझे नहीं बनना तेरा शिल्प

नहीं खड़े होना

एक आकार लेकर

सदियों तक दुनिया के सामने

मैं अपनी आग में

धधकते रहना चाहता हूँ

ताउम्र गुमनामी की राहों में!

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