बुद्ध की शिक्षाएँ -विश्व शांति का घोषणा पत्र
तिविध पावन पर्व बुद्ध पूर्णिमा (वैसाख दिवस) 26 मई 2021 के संदर्भ मेंशाक्य वैभव मौर्य सर्वप्रथम आप सभी को विश्व के अद्वितीय प्रकाश पुंज, प्रखर ज्ञान गुरु, अग्रणी अर्थशास्त्री, न्यास व्यवस्था ( ट्रस्टीशिप) के जनक , व्यक्तित्व विकास के सोपानों के अनन्त भण्डार, समस्त मानव को नैतिकता, लोककल्याण के पथ पर प्रेरित करने वाले, करुणा के महासागर, महामानव विश्वगुरु शाक्यमुनि भगवान तथागत गौतम बुद्ध के तिविध पावन पर्व (जन्म, ज्ञान प्राप्ति, महापरिनिर्वाण) के अवसर पर अनन्त मंगलकामनाएँ।भगवान बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में शाक्य गणराज्य के लुंमिनी वन में गणराज्य के महाराज शुद्धोधन शाक्य व महारानी महामाया शाक्य के पुत्र के रूप में वैसाख पूर्णिमा के दिन हुआ। 35 वर्ष की अवस्था में 528 ई. पू. में सिद्धार्थ ने उरुवेला (बोधगया) में इसी वैसाख पूर्णिमा के दिन बुद्धत्व की प्राप्ति की और 80 वर्ष की अवस्था में 483 ई.पू. में कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। तथागत के जीवन की तीन प्रमुख घटनाएं एक ही दिन होने के कारण इसे तिविध पावन पर्व कहा जाता है।
पंचशील के सिद्धान्त बौद्ध धम्म का मुख्य दार्शनिक पक्ष
भगवान बुद्ध के उपदेश, सुत्त, सिद्धान्त विभिन्न प्रकार के बौद्धिक संदर्भों में महत्वपूर्ण है। वैश्विक शांति व नैतिकता के संदर्भ में देखा जाए तो पंचशील के सिद्धान्त बौद्ध धम्म का मुख्य दार्शनिक पक्ष है। जो विश्व शांति का घोषणा पत्र है इन शीलो को अपनाकर मानवीय जीवन के नैतिक स्वरूप का निर्धारण होता है। इन पाँच शीलो में अकारण हिंसा से बचना, चोरी से बचना, वासना एवं मिथ्या आचरण से बचना, झूठ से बचना तथा नशीले पदार्थों के सेवन से दूर रहना है।
इन्हीं पाँच शीलो पर आगे चलकर मानव जीवन के नैतिक आचरण व व्यवहार का नीतिशास्त्र तैयार हुआ। सम्राट अशोक के समय धम्म प्रचार की नीतियों से भारतीय संस्कृति व बुद्ध का यह संदेश वैश्विक समुदाय को संप्रेषित हुआ।
बौध्द धम्म में पहली बार लोककल्याण का निश्चित उद्देश्य स्थापित किया
भगवान बुद्ध ने सर्वप्रथम प्रतीप्त समुत्पाद अर्थात कार्य कारण सिद्धान्त बताया जिसके अनुसार बिना कारण के कोई कार्य नही होता तथा हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है। अर्थात संसार से दुःख की समाप्ति का माध्यम है कार्य कारण सिद्धान्त। तथागत बुद्ध नें अपने धम्म में गतिशीलता के सिद्धांत को समाहित किया अर्थात जड़ता को त्यागकर क्रियात्मकता को बढ़ावा देना। बुद्ध ने अपने पहले धम्मोपदेश (धम्म चक्क पबत्तन दिवस -सारनाथ) में भिक्षुओं से कहा- 'चरथ भिक्खवें चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय'। अर्थात भिक्षुओं बहुत लोगो के हित, सुख एवं लोककल्याण के लिए विचरण करते रहो। और धम्म का प्रचार, प्रसार करते रहों।
अब देखें तो भारत मे बौद्ध धम्म की सबसे बड़ी देन स्मारकीय परम्परा की शुरुआत करने की है। क्योंकि बौद्ध धम्म के पहले भारत के पुरातात्विक इतिहास में कोई स्मारक प्राप्त नही होता है। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अस्थि अवशेषों पर 8 स्तूपों का निर्माण मगध, पिपलीवन, कपिलवस्तु, वैशाली, अलकप्प, पावा, रामग्राम, वेठ्ठदीप में कराया गया। बाद में सम्राट अशोक ने इन स्तूपों से अवशेषों को निकलवाकर पूरे भारतवर्ष में साँची, सारनाथ, भरहुत, लंगुड़ी, आलवी, डौंडियाखेड़ा, संकिसा सहित 84000 स्तूपों का निर्माण कराया। अशोक के बाद कनिष्क ने मणिक्याला व सातवाहन शासकों नें घण्टसाल व अमरावती के स्तूपों का निर्माण कराकर इस परम्परा को आगे बढ़ाया। इसके साथ कार्ले, भाजा, अजन्ता, एलोरा, लंगुड़ी में चैत्यों व विहारों में भित्तिचित्रो का निर्माण कराया गया।
सम्पूर्ण विश्व में न्यास व्यवस्था की शुरुआत बौध्द धम्म से हुई
गुप्तों, चालुक्यों, पल्लवों के समय निर्मित नागर एवं द्रविड़ शैली के मंदिरों के निर्माण में चैत्यों, विहारों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। स्तूपों में बनने वाला अण्ड का परिवर्तित रूप मंदिर में शिखर बन गया तथा मंदिरों में जगुति महत्वपूर्ण हो गया जो पहले से ही स्तूपों में निर्मित होता था।तथागत बुद्ध के समय विहारों का निर्माण न्यास अर्थात ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर हुआ अर्थात विहारो पर किसी का एकाधिकार न होकर सार्वजनिक स्वामित्व होता था इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व में न्यास व्यवस्था की शुरुआत बौध्द धम्म से हुई। ये विहार और मठ मूलतः भिक्षुओं के लिए निवास स्थल व पूजा स्थल होने के साथ शिक्षा के विख्यात केंद्र थे तथा शिक्षा व्यवस्था के अतिरिक्त चिकित्सा, लोककल्याण के जैसे कुओं का निर्माण बाग लगवाना तथा असहाय लोगों की सहायता करना आदि कार्यों का प्रबंधन होता था।
इन स्तूपों एवं चैत्यों में लोगो का आवागमन व्यापक रूप से शुरू हुआ जिससे परिवहन, बाज़ार, पर्यटन के विकास कर साथ नगरीकरण को बल मिला।
विश्व में पहली बार संघ, संगठन बनाने का कार्य बौध्द धम्म में
इस व्यवस्था को आगे चलकर दक्षिण भारत के मंदिरों में देखा जा सकता है। महायान विचार धारा के विकास से पहली शताब्दी ईस्वी में भारत में पहली बार मूर्तियों का निर्माण शुरू हुआ। जिसमें पहली मूर्ति तथागत बुद्ध की बनी। जिसके केंद्र गांधार व मथुरा थे।
इस समय तक ब्राह्मण धर्म से जुड़ी किसी भी मूर्ति का निर्माण नहीं हुआ था। बुद्ध की इन मूर्तियों से प्रेरणा लेकर गुप्तकाल में पहली बार विदिशा की उदयगिरि गुफाओं में विष्णु की मूर्ति का निर्माण हुआ। विश्व में पहली बार संघ/संगठन बनाने का कार्य बौध्द धम्म में हुआ।
जब भिक्षु संघ का निर्माण किया गया। यह संघ गणतंत्रीय प्रणाली पर था। जिसमे सभी भिक्षु समान थे उन्हें मताधिकार का भी अधिकार था। इस संघ की एक नियमावली पतिमोक्ख होती थी। जो वर्तमान संसद की नियमावली के समान थी तथा संघ की यह कार्य प्रणाली वर्तमान लोकतन्त्र का आधार है। इस प्रकार विश्व में लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकास में बौध्द धम्म का अद्वितीय व अविस्मरणीय योगदान है।
बौध्द संघ की इस व्यवस्था से प्रेरणा लेकर शंकराचार्य ने साधुओं के दसनामी सम्प्रदाय की स्थापना की व संन्यासियों को दश अखाड़ों में जोड़ा। इस प्रकार बौध्द धम्म की इस व्यवस्था का पालन अन्य धर्मों के विभिन्न संगठनों व नियमों में होता है। बौध्द धम्म में पहली बार लोककल्याण का निश्चित उद्देश्य स्थापित किया गया।
लोककल्याण अर्थात दूसरे की भलाई के विषय मे सोचने के विचार को बोद्धिसत्व की परिकल्पना में शामिल किया गया। बौध्द धम्म के आधार पर जिन धम्म सभाओं का आयोजन सँगीतियों के रूप में शुरू हुआ इस प्रकार की धर्म सभाओं का आयोजन भारत में विभिन्न धर्मों में जारी है। बौध्द धम्म की करुणा का संदेश ब्राह्मण धर्म में दया के रूप में परिवर्तित हो गया।
बौध्द धम्म में पहली बार ज्ञान को सामान्य व्यक्ति तक पहुँचाया, क्योंकि बुद्ध के पहले ज्ञान का महत्व केवल वर्ग विशेष तक शामिल था। इस प्रकार बुद्ध के उपदेशो से दार्शनिक ज्ञान की ज्योति सामान्य लोगों तक पहुँची।
बुद्ध ने ही पहली बार बताया कि धम्म का वास्तविक उद्देश्य मानवता का विकास करना है। इस प्रकार वर्तमान समाज मे भगवान बुद्ध के पंचशील सिद्धांतो को अपनाकर दुःख में सुख की खोज करके समाज मे व्याप्त समस्याओं जैसे- अनैतिकता, भ्रष्टाचार, लालच, क्रोध, घृणा का निराकरण किया जा सकता है।
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