भारतीय कर प्रणाली और कर दाता









दीप्ति डांगे 

आम-धारणा है कि आय तथा सम्‍पत्ति पर करों की उत्पत्ति दो हजार वर्ष पूर्व हुई  सीजर ऑगस्‍त्स ने की लेकिन भारत मे कर प्रणाली किसी न किसी रूप मे शुरू से लागू है जिसका उल्लेख ऋग्वेद, मनु स्मृति और महाभारत अर्थशास्त्र शुक्रनीतिसार में राजाओं के द्वारा उगाहे जाने वाले कर एवं राजस्व प्रद्धति का इस रुप में व्याख्या की गई है।

ऋग्वेद में बलि शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है जो राजा को कर या ईश्वर को आहुति देने के रुप में प्रयुक्त है। जो इस विचारधारा की पुष्टि करती है कि राज्य के स्थायित्व के लिए राजा के पास आय के पर्याप्त स्त्रोत का होना आवश्यक है, तभी राजा जनता के कल्याण के लिए कार्य कर सकती है। विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए राज्य के पास पर्याप्त कोष का होना आवश्यक है। जनता से लिया हुआ कर जनता के लिए उसकी सुरक्षा, उसके कल्याण के लिए होता है। जिससे ये पता चलता है कि प्राचीन समय से ही भारत मे सुनियोजित कराधान प्रणाली अस्तित्व में थी जो कृषि एवं पशु सम्पत्ति से ग्रामीणों के साथ साथ अभिनेताओं, नर्तकों, गायकों और नाचने वाली लड़कियों जैसे विभिन्‍न वर्गों के लोगों पर भी कर लगाए जाते थे। करों की अदायगी, सोने के सिक्कों, पशुओं, अनाज, कच्चे माल के साथ साथ व्‍यक्तिगत सेवा प्रदान करके भी की जाती थी।

कौटिल्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ अर्थशास्त्र में बड़े विस्तार पूर्वक राजकीय आय के स्त्रोतों की चर्चा की है। मौर्यकाल में भू-राजस्व तथा तद्सम्बन्धी अन्य शुल्क ग्रामीणों पर लगाये जाते थे।जो राज्‍य की आय का एक प्रमुख स्रोत थी।कौटिल्य के कराधान की अवधारणा, कराधान की आधुनिक प्रणाली के लगभग समान थी। इस प्रणाली में कराधान में समानता और न्याय पर बल दिया गया था। अमीर व्‍यक्तियों को गरीब व्‍यक्तियों की तुलना में उच्च करों का भुगतान करना होता था। बीमारियों से पीड़ित व्‍यक्तियों या नाबालिगों और छात्रों को करों से छूट प्राप्‍त थी या उपयुक्त से छूट दी गई थी। राजस्व संग्रहकों द्वारा संग्रहण और छूट के अद्यतन रिकॉर्ड तैयार किए गए थे।आज की तरह ही ही विभिन्न प्रकार के कर थे।और सड़कों और यातायात पर टोल कर के रूप में प्राप्‍त आय वणिकपथ भी था। 

'कर' शब्‍द की उत्‍पत्ति 'कराधान' से हुई है जिससे तात्‍पर्य आंकलन से है। इसे माल या पशुधन की बिक्री या खरीद पर लगाया जाता था तथा समय समय पर बेतरतीब ढंग से एकत्र किया जाता था। "टैक्स" शब्द लैटिन शब्द “टैक्सो” से आया है। एक टैक्स एक अनिवार्य या वित्तीय शुल्क है जो सरकार द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था पर राजस्व जुटाने के लिए लगाया जाता है। जो विभिन्न सार्वजनिक और देश के विकास कार्यो के लिए उपयोग किया जाता है। कानून के मुताबिक, खुद से या गलती से टैक्स भुगतान ना करने पर जुर्माना या सज़ा मिलने सकती है। भारत मे मुख्यत इसको दो श्रेणियों में विभाजित किया गया हैं – प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर। 

जो कर करदाता (टैक्स देने वाला) द्वारा सीधे सरकार को दिया जाता है। उसको प्रत्यक्ष कर कहते है।कर का बोझ हर उस व्यक्ति पर स्पष्ट रूप से आता है जो कर योग्य आय अर्जित करता है और वह इसे दूसरों को स्थानांतरित नहीं कर सकता है |  

उदाहरण इनकम टैक्स और वैल्थ टैक्स हैं।

प्रत्यक्ष करदाताओं की इनकम से सीधा संबंध सरकार से होता है।

अप्रत्यक्ष कर सामान और सेवाओं के उपयोग पर आधारित होते हैं।

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि  अप्रत्यक्ष कर का भुगतान सामान/ सेवाओं के उपभोक्ता सीधे सरकार को नहीं करते हैं।

बल्कि सरकार सामान/ सेवा के विक्रेता(बेचने वाला) से प्राप्त करती है इसके उदाहरणों में सेल्स टैक्स, GST, VAT, आदि शामिल हैं। 

ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के अनुसार पब्लिक मनी कुछ नही करदाता द्वारा दिया जाने वाला कर है। करों को सामान्यत: राजस्ववृद्धि का प्रमुख साधन माना जाता है जो राष्ट्र की अर्थनीति को भी प्रभावित करते हैं। क्योंकि किसी भी सरकार की आय का मुख्य स्रोत कर है जो जनता से लेकर जनता के लिए और देश के विकास कार्यों में खर्च करना और राष्ट्र की विषमता को दूर करना होता है।इसीलिए जिनकी अधिक आय है, उन्हें कम आयवालों की अपेक्षा अधिक मात्रा में कर देना पड़ता है। लेकिन भारत में भारतीय कर प्रणाली असन्तुलित है जिसके कारण 

1.भारतीय कर प्रणाली में प्रत्यक्ष करों की अपेक्षा परोक्ष कर अधिक हैं जिनका भार अमीरों की अपेक्षा निर्धनों पर अधिक पड़ता है।

2. हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है लेकिन इस पर कोई कर नही जबकि सरकार पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि तथा सम्बद्ध मदों पर अत्यधिक व्यय करती है जिसका भार 

गैर-कृषि आय वालो पर अधिक पड़ता है।

3.भारत की जनसंख्या 139 करोड़ है लेकिन कुल जनसंख्या के लगभग 1.5 प्रतिशत लोग ही आयकर अदा करते हैं। और शेष जनसंख्या आयकर नहीं देती।

4.संघ और राज्यों के बीच दोषपूर्ण वित्तीय विभाजन-केन्द्र और राज्यों के बीच आय के साधनों का बँटवारा दोषपूर्ण है। राज्यों के पास आय के साधन बेलोचदार तथा व्यय की मदें लोचदार हैं, जबकि केन्द्र के पास आय के साधन लोचदार हैं तथा व्यय की मदें बेलोचदार हैं।

इसका सबसे बड़ा कारण भारत में करों की चोरी होने का कारण भारतीय कर प्रणाली में न्यायशीलता का अभाव है।करों की वसूली सही ढंग से न होना, वोट राजनीति, कानून व्यवस्था का लचर होना,भारतीय कर प्रणाली का जटिल होना।

दुनिया की वित्तीय और शोध संगठनों की रिपोर्टों के अनुसार भी भारत के आर्थिक विकास की सबसे बड़ी चुनौती कर संबंधी जटिलताएं हैं। देश जब करों के सरलीकरण के रास्ते पर बढ़ेगा, तभी तेज आर्थिक विकास हो सकेगा। पहली बार 2017 से करो का सरलीकरण पर ध्यान देते हुए सरकार ने अप्रत्यक्ष करों के लिए जीएसटी लागू किया  जिसने दर्जनों करों का स्‍थान लिया।

अब सरकार प्रत्यक्ष कर सुधार (डायरेक्ट टैक्स रिफॉर्म यानी डीटीआर) की दिशा में बढ़ती दिखाई दे रही है।जिसमे सरकार ने

 “पारदर्शी कराधान – ईमानदार सम्मान”  मंच शुरू किया गया है। इस मंच में फेसलेस असेसमेंट, फेसलेस अपील और करदाता चार्टर जैसे प्रमुख सुधारों को समाहित किया है।जिससे सरल कानून और प्रक्रियाओं का अनुपालन आसान होता है। 

देश के इतिहास में पहली बार करदाता चार्टर लागू करने की कोशिश की है जिससे सीबीडीटी को आयकर अधिकारियों को दिशानिर्देश और आदेश जारी करने की शक्ति मिल जाएगी।यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है  दुनिया भर में करीब चालीस देशों में ऐसे करदाता चार्टर बने हुए हैं ओर दुनिया भारत को एक कठोर कर नियमन वाले देश के के रूप में देखती है। ऐसे में इस चार्टर से करदाताओं का भरोसा बहाल करने में मदद मिलेगी लेकिन यह भी महत्त्वपूर्ण है कि नए करदाता चार्टर को तैयार करते समय कानून-निर्माताओं को करदाताओं के प्रति जवाबदेही भी दिखानी होगी। करदाता चार्टर में कर विवरण सूचना की निजता, कारोबार संबंधी आंकड़ों की गोपनीयता और औपचारिक समाधान प्रक्रिया से इतर एक शिकायत निपटान प्रणाली को भी शामिल किया जाना होगा। एक करदाता चार्टर भले ही करदाता को अधिकार दे देगा, लेकिन उसके प्रभावी होने के लिए लोगों की मानसिकता में बदलाव और कर अधिकारियों के भीतर जवाबदेही की भावना लाने की भी जरूरत है।

भले सरकार कर सुधारों की दिशा में बढ़ रही है, लेकिन इनका लाभ तभी मिल पाएगा, जबकि करदाता भी ईमानदारी से अपने करों का भुगतान करेगी। जिससे दूसरे कर भुगतान  करने वालो पर बोझ कम होगा। दूसरी तरफ सरकार को भी इस तरह की नीतियां बनानी होंगी जिससे कानून व्यवस्था सुदृढ़ हो ताकि कोई करदाता बच न सके और हर करदाता के हितों के अनुकूल हों। कर प्रणाली की जटिलता को लेकर लोगों में जो भय व्याप्त हैं, उन्हें दूर करना होगा। तभी भारत 2025 तक पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना पूरा कर सकता है. प्रस्तुति रिपोर्टर चंद्रकांत सी पुजारी.

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