दीया जलाना है!
आत्म संवाद
मंजुल भारद्वाज
मनुष्यता को लीलते
भूमंडलीकरण के विकराल
दैत्य के समक्ष
मेरा सृजन एक बूंद भर है
एक प्रस्तुति,सैंकड़ों दर्शक
एक कार्यशाला,सीमित सहभागी
एक रचना गिने चुने पाठक
भूमंडलीकरण का विकराल दानव
ब्रांड एम्बेसडर, हज़ारों चैनल
करोड़ों अंधभक्तों की भीड़
फ़ासीवादी सत्ताधीश
जयकारा लगाती भेड़ों की भीड़
लोकतंत्र को भीड़तन्त्र में बदलता
पूंजीवादी मुनाफाखोर मीडिया
सत्ता के टुकड़ों पर नाचते कलाकलंक
मन इंसानियत को मरते देख
बैचेन है,लहुलहान है संवेदना
हज़ारों प्रश्नों का तूफान
मस्तिष्क में उमड़ घुमड़ रहा है
विवेक के तटबंध को तोड़
हिंसक होना चाहता है
खत्म कर देना चाहता है
इन पाखंडियों को
पर सहसा ठिठक जाता है
अरे भाई इस अन्यायी
चक्रव्यहू को भेदना है
अन्यायी नहीं बनाना है
वध भगवान कर सकता है
सजा संविधान दे सकता है
तुम ना भगवान हो
ना संविधान
तुम इंसान हो
तुम्हारी लड़ाई देहों से नहीं
प्रवृत्तियों से है
विकारों से है
विकार को विचार परास्त करता है
उन्माद को विवेक बदलता है
झूठ को सच परास्त करता है
पाखंड को सच जीतता है
पशुता पर मानवता की जीत निश्चित है
तुलना करोगे तो उनके
चक्रव्यहू में फंसोगे
विश्लेष्ण कर मनन करो
आडम्बरों का जाल
सच का मार्ग अलग होता है
तुम्हारा युद्ध तुम्हारे अंदर पैठे
हिंसक पशु से है
कला इंसानी बोध जगा
प्रवृति को बदलती है
संख्या को संख्या से नहीं
विवेक से बदला जाता है
विवेक और सत
आपका सच है
आपका लक्ष्य प्रतिबद्ध है
सृजन बूँद को स्वाह हो
कलात्मक लौ के आत्मप्रकाश से
व्यवस्था को रौशन करना है
विवेक के एक दीये से
दूसरा दीया जलाना है!
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