सम्बन्ध ज़रूरतों से बुने होते हैं
रेनू अग्रवाल
ज़रुरत मुताबिक सघन और बिरले होते रहते हैं
कभी कभी इतने सघन हो जाते हैं
की आर पार और कुछ नहीं दीखता
ठण्ड से कुकड़ते तन पर
कम्बल से लिपट जाते हैं
और कभी इतने बिरले हो जाते हैं
की नंगे हो जाते हैं
ज़बरन ओढने की कोशीश में
छीजे से तार तार हो जाते हैं
पर फिर ज़रुरत मुताबिक पैबंद हो ने लगते हैं
सब भूल जाते हैं की कब किसने
कितना दंश झेला होगा
जब चिथड़े चिथड़े संबंधों से
खुद को ढांपi होगा ..
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