एकलव्य का "अंगूठा "







मुकुल सक्सेना झाबुआ

मे नाम से एकलव्य हु,  

ना मोह माया लक्ष्य हैं,

ना उसका पुजारी हु,

राष्ट्रहित की भावना मेरी,

मे उसी का दास हूँ,

हु निशाद फिर भी राजवंशी,

ना लो यू दक्षिणा बार बार,

तभी तो होता हैं प्रतिभा पलायन,

 सोचो तो एक बार।।।

एक लय, एक लगन, एक निष्ठा से नामकरण हुआ निशाद पुत्र "एकलव्य"। जो अपने गुरु द्वारा मांगी गयी गुरु दक्षिणा के लिये अब तक आदर्श रुप मे जाने जाते है और हो भी क्यो ना। महाभारत के पन्नो को सशक्त करता एक जीता जागता किरदार लगता हैं आज भी वास्तविक रुप मे जिंदा हैं। लेकिन ये सशक्त किरदार की यथार्थ सत्य को चुनौती देती कहानी क्या गुरु दक्षिणा के रुप मे अंगूठा लेना सही था या द्रोणाचार्य को बचाने हेतू उन्हे संशयात्मक भी कहा जा सकता हैं। शिष्य तो बिन देखे भी आदर्श मान कैसे भी शिक्षा ग्रहण कर सकता हैं इसमे जाति वर्ग विशेष नही हुआ करता ना कुल या कुलीन। 

बहरहाल, एकलव्य का अंगूठा ले लेने के बाद भी प्रतिभा का पलायन नही हुआ एकलव्य ने फिर से तर्जनी व अनामिका का प्रयोग कर कर के आज के इस आधुनिक काल मे भी धनुर्धारी तर्जनी व अनामिका का उपयोग करते आ रहे है। कई संघर्षो को चुनौती देती प्रतिभा हवा के हजारो थपेडों के बाद भी एक लक्ष्य एक जुनून ने सार्थकता को सिद्ध करते हुये नवीन अन्वेषण को सिद्धान्त प्रतिपादित किया। जो आज द्रोणाचार्य के प्रियतम शिष्य अर्जुन को नही एकलव्य के सिद्धांत को अनुग्रहीत करते आये। मे बार बार सोचती हु आखिर पांडव व कोरव के गुरु द्रोणाचार्य ने यही सोचकर एकलव्य से दक्षिणा स्वरूप अंगूठा लिया की अब "एकलव्य" धनुष नही चला पायेगा क्योंकि अँगूठा ही तो इस विधा की जान है विचारणीय हैं कि ये भी द्रोणाचार्य की कितनी बडी भुल थी। 

क्या वो इतने वचनो मे बंधे थे की अपनी अंतरात्मा को अपने राजवंशी शिष्यो के आगे रख चुके थे? हालांकि युद्ध मे उन्हे इसकी कीमत अदा करनी पडी क्योंकि कर्मो का फल इसी जन्म मे मिल जाता हैं। आखिर हम इतनी बात क्यो कर रहे है,बएक बात ने कई दिनो से झकझोर कर रख दिया वह भी कोरोना संक्रमणकाल मे तो बहुत ही ज्यादा। 

हालाकि मेरी आदत हैं पहले गलत बात को निवेदन पुर्वक नम्रता से  बोलकर ज्ञात करवाने की कोशिश करती हु क्योंकि सैकडो बच्चो का भविष्य हम सबसे जुडा होता है और उनके साथ अन्याय ना होने देने की कोशिश जारी रखने की निरंतरता प्रमुख उददेश्य होता है। लेकिन फिर वही कागजों तक सीमित कई उद्देश्य परख व्यक्तित्व सामने रुबरु होते हैं जहा सिर्फ हल्केपन की बातचीत जन्म लेती हैं ऐसें मे मौन धारण कर लेना उचित हैं ना की अन्य्ंत्र वार्तलाप के। फिर अगर कुछ सार्थक करने की चाह हो तो जरूरी नही कि स्वयं को माहिमामंडित कर पदासीन किया जाए।

ज्ञान और कर्म के बन्धन को कोई भी ज़मीन से हटा नही सकता वह किसी ना किसी रुप मे अपने कार्य को करता ही रहता हैं। आध्यात्म ओर विज्ञान यही आकर मिल जाते हैं हालाकि की इस पक्ष पर कई लोगो के विचार नही मिल सकते ये निश्चित है, क्योंकि विज्ञान परिणाम देखता है वह भी सफल और आध्यात्म एक सशक्त माध्यम बनकर राह को सार्थक रुप से मार्गदर्शीत कर लक्ष्यबाधित करता हैं।  

हम जनजातीय क्षेत्र मे निवास करते है यही की संस्कृति, परिवेश प्रकृति से अब तक जुड़े है। यहा हर घर मे कई एकलव्य पाये जाते है। फिर कई मोका परस्त अवसरवादी स्वहित का सोचने वाले गुरुओ का पदार्पण हुआ और "जन जातिय भाईयो की प्रतिभा का पलायन हुआ" क्या कोई कमी थी, ऐसी भी नही। बस फर्क यही हैं पहले संस्कृति रग रग मे बसी थी अब वह भी पलायन कर गयी। 

खैर गलती इनकी नही है गलती है इन सामाजिक हत्या करने वालो की जो इन भोले भाले लोगो को कई प्रकार से कभी डरा कर ,कभी दबा कर इनकी हर चीज पर कब्जा कर लिया और जो इनके हित के लिये बनी सरकारी योजना ओर नियम  बने है उन पर भी स्वयं को बैठा लिया और इनका मन ये कहता हैं अब दिखाओ आगे बढकर। ये तो रही बात जनजातीय इलाके मे पनप रही प्रतिभा पलायन की। अब बात रही प्रतिभाओ को चयनित करने की जो कई हितो की रक्षा हेतू बनाई जाती है ।लेकिन भारत हमारा अब तक विकासशील देश ही क्यो है ये अब समझ आता हैं।

सब आँखो देखा खैल हैं चयन के नाम पर पहले साक्षात्कार फिर आता हैं राजनैतिक दावेदारी जहा फिर कोई प्रतिभा मन मसोस कर पलायन कर जाती है। पर ऐसा नही अभी उसका अप्रत्यक्ष दोहन बाकी हैं कैसे भी। आखिर इन विभागीय राजनैतिक खैलो से एकलव्य बार बार अपना अँगूठा काटकर नही देगा क्योकि एक बार की दक्षिणा से वह भी समझ गया अब मुझे आगे क्या करना हैं।

तब जब विश्व का हर व्यक्ति एक विषाणु की चपेट मे मौत के हाहाकार से जूझ रहा निम्न, मध्यम वर्गीय परिवारों की स्थिती तो और भी विकट है । प्रभुत्व  सत्ता जिसके हाथ मे है वह कर्मो की आहट को देख  रहा। जरूरी नही जीवन प्राप्त हो हो सकता हैं नित् नयी जिम्मेदारी या कोई सेवा बाकी हो । ऐसे मे जिसको जितना खैल खैलना होगा खेलेगा और कई एकलव्य ऐसे मे एक लय एक लगन और एक निष्ठा के साथ अपने कर्मो मे लीन रहेंगे।

"जिम्मेदारी हमारी "

अगर देश मे वास्तविक स्वस्थ प्रगति चाहिये तो एकलवयो से अँगूठा नही वरन उनकी एकनिष्ठा जो राष्ट्रहित की भावना से परिपूर्ण हो को दक्षिणा में स्वीकारना अतिआवश्यक। प्रतिभा पलायन को रोके।कई एकलव्य आज भी मार्गदर्शन की राह देख रहे।

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