साहित्य और सत्ता की टकसाल
मंजुल भारद्वाज
सोचता हूं
साहित्य जिंदा होता तो
भारतीयता त्याग
गर्व से कंकाल होने के
नारे कौन लगाता?
वैसे साहित्य जिंदा कब था
पाषाण काल में
सामंत काल में
या भूमंडलीकरण में?
क्या साहित्य
सत्ता की टकसाल से
चंद सिक्के और शोहरत
पाने के लिए लिखा जाता है ?
सत्य,समता,न्याय
अधिकारों के लिए
लड़ने वालों के पथ में
सत्ता कील ठोक देती है
सूली चढ़ा देती है
और
साहित्यकार को सत्ता पुरस्कार देती है
बात साफ़ है
सत्ता पुरस्कृत साहित्य
सत्य,समता,न्याय का उद्घोष नही
सत्ता का जयकारा होता है !
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