विध्वंस से सत्ता नहीं कला बचाती है!
वक़्त के आगे होना
मतलब सृजन एकांत
व्यवहार की आपाधापी से दूर
चैतन्य के अमूर्त में
पैठ जाना !
ऐसा होना
दुनियादारी के हिसाब से
निकम्मा,निठल्ला
बेमतलब होना होता है !
दुनिया को सिर्फ़
मूर्त से मतलब होता है
अमूर्त उसके लिए
केवल ईश्वर है
जो संकट में याद आता है !
ईश्वर यानी
तर्क से परे
आस्था का भंवर
दुनिया तर्क से नहीं
आस्था से चलती है !
मूर्त अमूर्त का यही द्वंद्व
कला को जन्मता है
कला मनुष्य को आस्था के
भंवर से निकाल
विचार और विवेक के
चैतन्य से आलोकित कर
मनुष्य को इंसान बनाती है !
कला मनुष्य का
प्राकृतिक सौन्दर्य बोध
जीवन की सार्थकता है
विकार की निर्मम
क्रूर और हिंसक पराकाष्ठाओं का
संतुलन बिंदु है कला !
कला उन्मुक्त मानव दर्शन है
कला सम्प्रेष्ण हुनर है
शरीर और प्राण
प्राण जीवन है
शरीर उसका व्यवहार
बिना प्राण
देह का अर्थ नहीं
उसी प्रकार
बिना मानव मूल्यों के
कला का सम्प्रेष्ण हुनर
मुनाफ़ा कमा सकता है
पर सार्थकता नहीं !
जब मुनाफ़ाखोरी
जीवन लक्ष्य हो
मुनाफ़ाखोर प्रतिष्ठावान हो
तब मानव मूल्यों का ह्रास होता है
ऐसा काल विध्वंस काल होता है
मनुष्य को ऐसे विध्वंस काल से
सत्ता नहीं कला बचाती है
पर
कला अमूर्त होती है!
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें