पंचायत चुनाव की डुगडुगी बजने से गांव का माहौल हुआ रंगीन....

 


राम कुशल मौर्य 


जीत के लिए आजमाए जा रहे फंडे


अंबेडकर | नगर,,पंचायत चुनाव की डुगडुगी बजने से ग्राम प्रधानोें की घड़कने बढ़ गईं हैं। अपनी सीट बरकरार रखने के लिए हर जतन किए जा रहे हैं। वोटरों को भी खुश कर रहे हैं जो सबसे कठिन काम है। दावेदार प्रधानी की कुर्सी पाने के लिए हर जतन कर रहे हैं। 5 साल तक लोगों का हाल-चाल न लेने वाले अब प्रधान बनने की होड़ में लोगों का दुख दर्द पूछते देखे जा रहे हैं।पंचायत के विभिन्न पदों पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों ने भी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए गोटियां फिट करनी शुरू कर दी हैं। सभी उम्मीदवार हर तरह से चुनावी रणनीति बनाकर अपने विरोधियों को पटखनी देने के लिए शतरंज की बिसात बिछाने में मशगूल हो गए हैं। उम्मीदवार सांझी रणनीति के तहत ऐसी योजना बनाने में जुटे हुए हैं, ताकि चुनाव में जीत भी जाएं और विरोधियों को भी करारा जवाब दिया जाए। उम्मीदवार मतदाताओं को ऐसे प्रलोभन में भी फंसाने का दांव खेल रहे हैं, ताकि काम भी बन जाए और मतदाता भी खुश रहे। पंचायत चुनाव में कुछ स्वार्थी तत्व जातिवाद का जहर घोल कर माहौल के समीकरण बिगाड़ने में जुट गए हैं। चुनाव की तिथियां भले ही न आई हो लेकिन पद के दावेदार गोटें बिछाने लगे हैं। दूसरी तरफ गांव की दुर्दशा पर मतदाता अपने भाग्य को अभी भी पछता रहा है। ग्रामीण इस बार सोच समझकर मतदान करने के बाद कह रहे हैं। एक अक्टूबर से मतदाता सूची के पुनरीक्षण का कार्य शुरू हो जाएगा। हाईटेक बीएलओ एड्रायड मोबाइल के साथ घर घर जाएंगे। इसी के साथ प्रधान जी भी इस काम में लग जाएंगे कि किसी का वोट बनने से न रह जाए।ग्राम पंचायतों का कार्यकाल 26 दिसम्बर को पूरा हो रहा है। आयोग ने मतदाता सूची के पुनरीक्षण का कार्यक्रम घोषित किया है। इससे चुनाव जनवरी में होने की संभावना जताई जा रही है। इस बार 6 महीने से अधिक समय पुराना महामारी में ही निकल गया। यह समय वर्तमान प्रधानों के लिए काफी नुकसानदायक साबित हुआ है। इस दौरान काम तो हुए लेकिन प्रधान के मनमाफिक ऐसे काम नहीं हो पाए जिससे उनका वोट बैंक बढ़ जाता। यदि स्थिति सामान्य होती तो प्रधान के हिसाब से काम होते। अब चुनावी वर्ष में वोटों के गणित के हिसाब से काम न हो पाना प्रधानों को भारी पड़ रहा है। समस्या यह भी है कि अब उनके इतना समय भी नहीं बचा है कि कुछ काम करा सकें। ऐसे में वोटरों को अपने साथ रखना एक बड़ी चुनौती है। यह बात प्रधानों को परेशान कर रही है। जैसे चुनाव का समय नजदीक आ रहा है । यह चुनौती और भी बढ़ती चली जा रही है। पहले यह लग रहा था कि शायद चुनाव अप्रैल या मई में होंगे और उस समय तक परिस्थितियां बदल जाएंगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिस तेजी से काम शुरु किया गया है। उसके चलते चुनाव तो जनवरी में होते दिखाई दे रहे हैं। इससे प्रधानों की धड़कने बढ़ाने के लिए काफी हैं। पंचायत सदस्यों व ग्राम पंचायत के प्रधानों ने कार्यकाल तो पूरा कर लिया है। लेकिन गांवों की दुर्दशा ज्यों की त्यों हैं। शासन ने ग्राम विकास में जहां करोड़ों रुपया ग्राम पंचायतों को दिए। पैसा तो खर्च हो गया परंतु रास्ते ज्यों के त्यों बने रहे। सदस्यों व प्रधानों ने लोगों की समस्या पर कम अपने विकास पर ज्यादा ध्यान दिया गया।कई गांव ऐसे हैं जहां आज भी लोगों का निकला मुश्किल है। पंचायत चुनाव में आरक्षण का फायदा उठाकर अशिक्षित महिलाएं प्रधान बन जाती हैं। इसके बाद पूरे 5 साल तक घूंघट में रहती हैं। इनके पति प्रतिनिधि बनकर प्रधानी चलाते हैं। घरेलू महिलाओं को आरक्षण के चलते चुनाव जिताकर उसे घर की चहार दीवारी तक ही सीमित रख उनके पति बतौर प्रतिनिधि पंचायत चलाते हैं।सोशल मीडिया का भी पंचायत चुनाव में सहारा लिया जा रहा है। इससे कोरोना काल में मिलने और घर जाने का जोखिम भी नहीं उठाना पड़ रहा है। फेसबुक और व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये लोगों को जोड़कर अपने पाले में करने के जतन किए जा रहे हैं। इनमें युवा प्रत्याशी और समर्थक ज्यादा सक्रिय दिख रहे हैं। सोशल मीडिया पर मतदाताओं को लुभाने की प्रक्रिया तेज हो गई है। गांव में चाय की चुस्कियो के अलावा घरों से लेकर सार्वजनिक स्थानों पर चुनावी चर्चा तेज हो गए हैं।


टिप्पणियाँ