खुदमुख़्तार...

मंजुल भारद्वाज


एक राह


चलते चलते ज़िंदगी


खुदमुख़्तार थी


दोराहे पर आकर


लाचार हो गई


दो राहों में कौन सी


राह पर चलूं


के विमर्श में उलझ गई


सोचा सलाह कर लूँ


एक राह पर मंदिर था


ज़िंदगी उस राह चल दी


ऐसा लगा खुदमुख़्तारी लुट गई


मन भ्रांतियों से भर गया


आगे चौराहा आ गया


दोराहा सुलझा नहीं था


चौराहे के चक्रव्यहू ने आ घेरा


एक ओर मस्जिद थी


ख़ुदा उस ओर ले गया


एक हाथ पहले से भगवान ने थामा था


दूसरा अल्लाह ने थाम लिया


मनुष्य होने को विश्वास छिन गया


जहाँ भगवान और अल्लाह ले गए


उधर चलता रहा


अब समाज की भूलभुलैया में उलझ गया


हर घर मन्दिर था


हर घर मस्जिद


हर घर गिरिजाघर


बस कहीं भी


इंसान का घर नहीं मिला


मन बेचैन हो उठा


भगवान और अल्लाह से हाथ छुड़ा


भाग लिया


सारे दोराहे


चौराहे छोड़ आया


मनुष्य होने की राह


चल पड़ा ज़िंदगी कुदरत के रंगों से


खिल उठी


दिल प्रेम में नहा


खुदमुख़्तार हो गया!


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