R.N.I. No. UPHIN/2005/17084
मंजुल भारद्वाज
हे माटी के सच्चे सपूत
तेरी साधना से प्रकृति पिघलती है
खिलती है तेरी कर्मठता से
तेरे पसीने का श्रृंगार कर सजती है
तेरी भुजाओं में खिलती है धरती
धानी चुनरिया ओढ़े हुए
रंग बिरंगी मदमस्त अल्हड़
अपनी कोख में पलते बीज को फसल बना
उपकार करती है पूरी मानवता पर
तेरे श्रम से पलता है जहां
ऐ माटी के सपूत
पर कोई झूठा करता है राज
भेड़ें लगाती हैं जयकारा
मक्कार मर्यादा विहीन करते हैं
भारत के मानस राम का शिल्यान्यास
तेरे हाथों की रस्सी बन जाती है
तेरी आत्महत्या का सबब
देश में तेरी मेहनत से पलने वाले
उफ़ तक नहीं करते
मौन धरे चले जा रहे हैं
अपनी ज़िंदा लाश लिए
मोक्ष धाम की ओर!
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