R.N.I. No. UPHIN/2005/17084
मंजुल भारद्वाज
कौंध रही है मस्तिष्क में
हूक कर रही है ज़ोरदार गर्जना
बेचैनी झकझोर रही है
घुटन सांसों को घेर रही है
दहाड़े मार कर रो रहा है आसमां
काल पुकार रहा है
दे रहा है क्षितिज सदा
विद्रोह, विद्रोह,विद्रोह
गूंज रहा है अंतरात्मा में
संवेदहीन व्यवस्था के बीच
प्रश्न केवल आत्म आलोकित होने का नहीं है
चुनौती है मूर्छित सभ्यता में
सांस्कृतिक चेतना जगाने की
आत्म मंथन के समंदर में
भीगता हुआ सृजनकार
समाधिस्थ है बरसती हुई
विद्रोह अग्नि को साधता हुआ!
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