विद्रोह अग्नि को साधता हुआ!


मंजुल भारद्वाज


कौंध रही है मस्तिष्क में 


हूक कर रही है  ज़ोरदार गर्जना


बेचैनी झकझोर रही है


घुटन सांसों को घेर रही है


दहाड़े मार कर रो रहा है  आसमां


काल पुकार रहा है 


दे रहा है  क्षितिज सदा


विद्रोह, विद्रोह,विद्रोह


गूंज रहा है  अंतरात्मा में


संवेदहीन व्यवस्था के बीच


प्रश्न केवल आत्म आलोकित होने का नहीं है


चुनौती है  मूर्छित सभ्यता में


सांस्कृतिक चेतना जगाने की


आत्म मंथन के समंदर में


भीगता हुआ  सृजनकार


समाधिस्थ है बरसती हुई


विद्रोह अग्नि को साधता हुआ!


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