R.N.I. No. UPHIN/2005/17084
मंजुल भारद्वाज
सहराओं में तपती विरह अग्नि
सांसों में लिपट गई है
धड़कते दिल की गिरह में सिमटी यादों को सुलगा
रही है
जिस्म से रूह निकलकर
रूबरू होती है वक़्त से
पूछती है अनसुलझी पहेली
बताती है विरह भंवर से निकलने का
जलेबी सा सीधा सरल मार्ग
प्रेम में पगा बरस रहा है
मलहार गाता हुआ
विरह अग्नि में जलते हुए!
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