...जो सत्य को मंचित करता है वही रंगकर्मी है..?

रंगमंच और राजनीति


रंगमंच एक राजनैतिक कर्म है जो राजनीति और रंगमंच के अन्तर्सम्बन्ध को नहीं जानता वो ‘रंगकर्मी’ नहीं है!


मंजुल भारद्वाज 


आज का समय ऐसा है, आज का दौर ऐसा है आज विपदा का दौर है, संकट का दौर है, महामारी का दौर है, या भारत के संदर्भ में कहूं तो एक ऐसा दौर है जब राजसत्ता अपने देशवासियों को खत्म करने पर उतारू है । ऐसे समय में बहुत अपेक्षाएं होती हैं । जाहिर है होनी भी हैं, मानव स्वभाव है, अपेक्षाएं आप अपने - अपने तरीके से करते हैं । अपने लिए करते हैं और कई बार समग्र करते हैं और जो समग्र चिंतन होता है वही कलात्मक है, नहीं तो एक निजी सुख या निजी स्वार्थ होता है । आज तकनीक की संचार क्रांति पर सवार होकर मैं आप तक पहुंच रहा हूँ। यह पहुंचना संचार है। यह संचार व्यापक है। मतलब मैं अपने घर के कोने में बैठ के आज पूरी दुनिया में हूँ, दुनिया में आप मुझे पढ़ रहे हैं, समझ रहे हैं, पर क्या आप मुझे महसूस कर रहे हैं? मैं बात कर रहा हूँ कि तकनीक के द्वारा हम संचारित हैं, तकनीक संख्यात्मक पूरा वैश्विक रूप ले चुकी है, लेकिन जो रूबरू होने का अनुभव, अनुभूति, स्पर्श रंगमंच पर है वह यहां नहीं है और मैं जानता हूँ कि आप मेरे इस बात से सहमत हैं। जब मैंने कहां सहमत हैं तो आज के इस लेख-चर्चा में बहुत सारे बिंदु असहमति के होंगे और वह असहमति के बिंदु कोई विरोधाभास नहीं है। बल्कि जो रंगमंच का लक्ष्य है उसे पाने का अलग अलग तरीका है, अलग-अलग पद्धति हैं और इस पद्धति के तहत हम आज सहमति असहमति से आगे बढ़ेंगे और मथेंगे इस समय को और इस को मथते हुए हम अपनी अवधारणाओं को मथेंगे। आप सब जो मुझे पढ़ रहे हैं आप सबकी अपनी अपनी अवधारणाएं हैं। वह अवधारणाएं आपने अपना जीवन जीते हुए बनाई हैं, जीवन जीते हुए अनुभव की हैं, उन अवधारणाओं को आज थोड़ा कुरेदेंगे ।


समय का मतलब है स से सत्य, म से मंचित और य से यायावर..


यानी सत्य को मंचित करता हुआ यायावर, जो सत्य को मंचित करता है वही रंगकर्मी है...?


आज का दौर ऐसा है खासकर भूमंडलीकरण के इस दौर से पहले यानी 1990 के पहले हम देश के नागरिक थे, 1990 के बाद हम देश में ग्राहक हो गए हैं तो हमको ऐसा कंडीशंड किया जाता है कि जो लिख रहा है उसकी यह जिम्मेदारी है कि पढ़ने वाले को संतुष्ट करे। भूमंडलीकरण के इस खरीद-फरोख्त वाले दौर में जाहिर है जो बेच रहा होगा उसको ग्राहक यानी पाठक को संतुष्ट करना पड़ेगा, नहीं तो उसका सामान आप खरीदेंगे नहीं। लेकिन आज का विमर्श खरीद-फरोख्त नहीं है। मैं आपको कुछ बेच नहीं रहा हूँ और आप कुछ खरीद नहीं रहे हो। तो समझ बनाने के लिए हम सब की बराबरी की जिम्मेदारी है और उस जिम्मेदारी में आज आइए अपनी अवधारणाओं में हम ढूंढते हैं अपना-अपना बुद्ध! 'बुद्ध' का मतलब यहां एक बिंब है, एक तत्व है, जिसको मैं आज आपके सामने रख रहा हूँ। वह तत्व है अहिंसा का, वह तत्व है प्रेम का, सद्भाव का, सह अस्तित्व का। बुद्ध के पहले से है कला, रंगमंच, और रंगमंच तब से है जब मनुष्य ने मनुष्य होने का एहसास किया था। या मैं कहूं मनुष्य से इंसान बनने की शुरुआत कला से शुरू हुई. मनुष्य ने जब समूह को समझा तो कला सामूहिक बनी और रंगमंच के रूप में हमारे सामने आज मौजूद है। मैं यह भी कह दूं की, रंगमंच को शुरू होने से लेकर आज तक कोई खतरा नहीं है और ना आगे होगा। वह खतरा इसलिए नहीं है ‘जब तक मैं इंसान के रूप में, मनुष्य के रूप में, सांस लेता रहूंगा, जब तक मुझे जीने की चाहत रहेगी, जब तक मुझे स्पर्श की अनुभूति रहेगी, तब तक रंगमंच जीवित है’।हां रंगकर्मियों की, रंगमंच पर काम करने वालों की चुनौतियां हो सकती हैं और रहेंगी। आइए समय को समझते हैं।


समय का मतलब है स से सत्य, म से मंचित और य से यायावर। यानी सत्य को मंचित करता हुआ यायावर, जो सत्य को मंचित करता है वही रंगकर्मी है और आज के इस समय में एक क्रूर, निर्दयी, निर्मम दौर में हम जी रहे हैं। महामारी ने हमको पुनरावलोकन के लिए चेताया है। महामारी हमें यह कह रही है कि आप मनुष्यों की लालसा,लालच प्रकृति में दखल है.आप पुनरावलोकन कीजिए और अपने आप यह तय कीजिए कि आप को कैसे जीना है? लेकिन राजसत्ता या राज्यव्यवस्था अलग व्यूहरचना रच रही है। मैं यहां तकनीक का बिंदु लाना चाहता हूँ। 70 महीने से हम तकनीक की बात सुन रहे हैं, समझ रहे हैं, डिजिटल इंडिया की बात कर रहे हैं। डिजिटल हो गया है सब और यह भी सच है कि डिजिटल जुमलों से 70 साल के बाद 70 महीनों से एक अनोखी बहुमत की सरकार है।


आप सोच रहे होंगे कि रंगमंच का राजनीति से क्या सम्बन्ध? तो मैं यह स्पष्ट कर दूं आपको कि मौलिक रूप से मूलतः रंगमंच एक राजनैतिक कर्म है! वह कैसे इसका विस्तार मैं आगे कर रहा हूँ. डिजिटल इंडिया को समझिए। डिजिटल इंडिया को समझते हुए हमें 1990 के बाद से यह समझना है कि 1990 के बाद इस देश में कौन रह रहा है। इस देश में वो रह रहा है जो मंडल, कमंडल और भूमंडल से निकला है और आप देखिए कि मंडल वाले आरक्षण में शामिल होकर नौकरियों में हैं यानी कि वह साधन हीनता से संसाधन संपन्न हो गए हैं। जो भूमंडल वाले हैं वह देश के संसाधनों को बेच कर अमीर हो रहे हैं और कमंडल वाले सत्ता पर बैठे हैं। डिजिटल जुमलों से वह सत्ता पर काबिज हैं। अब जब यह विपदा आई और पहला लॉक डाउन हुआ फिर दूसरा लॉक डाउन हुआ और फिर तीसरा हुआ और विगत 15 से 20 दिनों में जो मंडल, कमंडल और भूमंडल के बाहर जो देशवासी हैं, जो 70 महीनों में किसी को नहीं दिख रहे थे वो हम सबको दिखाई देना शुरू हो गए और हम सबको इस तरह से दिखाई देना शुरू हुए कि उन्होंने इस डिजिटल सत्ता को उखाड़ फेंका है। आप सही पढ़े हैं , उखाड़ फेंका है! जब आपके मन में कोई सृजन भाव आता है या कोई कलात्मक विचार आता है तो आप दिन रात उसको मथते रहते हैं , फिर उसे लिखते हैं , फिर उसे प्रस्तुत करते हैं , उसके बाद वह दर्शकों को दिखाई देता है।


आज यह अदृश्य भारतीय अपने कदमों से पूरे भारत को माप रहे हैं। चल रहे हैं इनका चलना लोकतंत्र का संघर्ष है। क्योंकि 70 महीने वाली सरकार ने डिजिटल फरेब से सबको काबू कर लिया था यानी मध्यमवर्ग, निचला मध्यमवर्ग, सरकारी तंत्र, मीडिया सब उनके जयकारे में लगे हैं। दुर्भाग्य है सेना भी फूल बरसा रही है । लेकिन यह अंतिम व्यक्ति वही है जो गांधी के हैं, जो अंबेडकर के हैं, जो मार्क्स के सर्वहारा हैं, इन अंतिम व्यक्तियों ने एक सत्याग्रह किया है या मैं कहूं सत्ता से विद्रोह किया है। प्रतिरोध किया है और वह प्रतिरोध अहिंसक है। बहुत व्यथित हुआ मैं और लगातार देखता रहा फिर जिस दिन औरंगाबाद (महाराष्ट्र) की घटना घटी और ट्रेन का जो हादसा हुआ उस दिन बहुत वेदना के बाद एक रचना रची और एक नई दृष्टि मुझे मिली। यही लोग हैं जो लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं और यह डिजिटल इंडिया के राज में कहीं नहीं हैं। इनकी संख्या 12 करोड़ बताई गई है।


मैं बात कर रहा हूँ समय की, 12 करोड़ का मतलब है कि वे लगभग जर्मनी के डेढ़ गुना के बराबर हैं। यानी दुनिया की पांचवीं आर्थिक महासत्ता हमारे देश में सड़कों पर चल रही है और जब मैंने वह कविता लिखी उस पर सवाल भी उठे। उस पर पूछा गया "बताओ मैं क्यों नहीं चला" ! यह भी चर्चा हुई कि यह कोई सोचा समझा फैसला नहीं है।


आज मैं जो भी बात कर रहा हूँ वह केवल और केवल रंगमंच के बारे में बात कर रहा हूँ। जी सही समझे आप और जब पढ़ा लिखा मध्यमवर्ग अपने घर में बैठकर कोरोना से हाथ स्वच्छ करने का प्रण ले रहा था, या बाहर मत निकलो की सीख दे रहा था उस समय यह मजदूर, यह गरीब सोच रहा था। इसका सत्याग्रह बिना सोचा समझा नहीं है। इसका सत्याग्रह निरा पेट से निकला भी नहीं है। इसका सत्याग्रह है "मुझे करने के लिए काम चाहिए"। और जब मुझे करने के लिए कोई काम नहीं है तो मैं वहां पहुंचना चाहता हूँ जहां मुझे थोड़ा बहुत काम मिले, जहां मुझे सुरक्षा मिले, जहां मेरा अपना होना हो ! इस सत्याग्रह ने, इस डांडी मार्च ने, इस अहिंसक प्रतिरोध ने, भारत के लोकतंत्र को जीवित कर दिया है। और डिजिटल सरकार को खत्म कर दिया है। जी कानूनी रूप से वे सत्ता में हैं, लेकिन वे खत्म हो चुके हैं । गिरते हुए थोड़े दिनों में आप देखेंगे उन्हें। मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि रंगमंच इसी तरह से इनविजिबल होता है और जो विजिबल होता है वह उसका 10% हिस्सा भी नहीं होता। रंगमंच को आपको समझना है तो एक बिंब आपके सामने रखता हूँ - वह है "आइसबर्ग" यानी "हिमखंड"। जितना समुद्र के ऊपर यानी पानी की सतह के ऊपर हमें हिमखंड दिखता है वह उसके टोटल आकार का 10% होता है बाकी सतह के नीचे होता है। तो 90% रंगमंच में क्या होता है? रंगमंच यह शब्द जब आपके मस्तिष्क में कौंधता है तो आपके सामने क्या क्या दृश्य आते हैं? आपके सामने आता है एक ऑडिटोरियम, आपके सामने आता है स्टेज, आपके सामने आते हैं दर्शक, आपके सामने आते हैं सेट,कॉस्टयूम, मेकअप, एक्टर, पर यह अपने आप में थिएटर नहीं हैं। इस सबके पीछे क्या होता है? इस सबके पीछे है जीवन।


जीवन बहुत बड़ा है और जीवन ही सत्य है। जीवन की पुनरावृत्ति है रंगमंच और जब तक आपको जीवन का अभ्यास नहीं होगा तब तक आप रंगकर्म में मौजूद हो सकते हैं, संवाद बोल सकते हैं, पर रंगकर्म को आप कितना जीते हैं यह एक सवाल है? आज जब मजदूरों ने अपनी आहुति देकर, अपने प्राणों की आहुति देकर, इस लोकतंत्र को जिंदा किया है, इसी तरह से रंगमंच मनुष्य में मनुष्य को जीवित करता है। मनुष्य में मनुष्य को जीवित करना या मनुष्य को इंसान बनाना यही रंगमंच का अंतिम ध्येय है यह समझ लीजिए। और अगर यह ध्येय पूरा नहीं होता है तो हम रंगमंच नहीं, रंगमंच के नाम पर कुछ और कर रहे हैं। डिजिटल यानी तकनीक, डिजिटल थिएटर एक नया जुमला उभर आया है। यह डिजिटल के फरेब को फिर से आपके सामने उदाहरण देता हूँ कि एक जनधन योजना का बहुत सारा ढोल पीटा गया। भूखे लोगों को उनके जनधन अकाउंट में 500 – 500 रूपये ट्रांसफ़र किए और जब वो अपने अकाउंट से पैसा निकालने गए तो इस डिजिटल सत्ता की पुलिस ने उनका डंडों से स्वागत किया। सारी की सारी महिलाओं को हिरासत में लिया गया और उनको 10 हजार के मुचलके पर छोड़ा गया। यह है डिजिटल इंडिया! दूसरा एक अनुभव है जिसको समझिए। आप सोचिए यह पैसा मनीआर्डर से उनके घर पहुंचा तो, एक डाकिया उनको देकर आता, तो क्या उनको डंडे खाने पड़ते? हां मैं समझ गया आप बहुत समझदार हैं, पढ़े-लिखे हैं, सभ्य हैं, दिमाग में यह सवाल आ रहा है सब जगह जब लॉक डाउन है, बंद है तो कैसे पहुंचता डाकिया?


जब पुलिस का डंडा आप तक पहुंच सकता है, तो डाकिया क्यों नहीं पहुंच सकता! अब तो आप देखिए कि डिजिटल इंडिया के फरेब से सरकार भी बाहर निकली है। दारु के ठेके खोले गए क्योंकि दारू इंटरनेट से नहीं पहुंचाई जा सकती उसको लेने जाना पड़ेगा या घर पहुँचाना पड़ेगा। तो खाना क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता? यहां यह समझना अनिवार्य है कि राजनीति के गर्भ से निकली राज्यव्यवस्था नीति बना सकती है, नियम बना सकती है, सड़क बना सकती है, मनुष्य को मनुष्य नहीं बना सकती और रंगकर्म मनुष्य को मनुष्य बनाता है।


बिना राजनीति, राजनैतिक प्रक्रियाओं को समझे कैसे सत्ता से उपजे विष से मनुष्य को मुक्त किया जा सकता है? इसलिए जो राजनीति और रंगमंच के अन्तर्सम्बन्ध को नहीं जानता वो ‘रंगकर्मी’ नहीं है वो रंग दृष्टि शून्य मात्र एक नाचने गाने वाला हुनरमंद शरीर है. जो मात्र दरबारों की रंग नुमाइश होता है. सत्ता या पूंजीपतियों के दिल बहलाने वाला भोग हो सकते हैं. वो इस भोग से लोकप्रिय हो कर खूप पैसा कमा ख्यातिनाम हो सकते हैं पर रंगकर्मी नहीं हो सकते! जैसे बिना राजधर्म निभाए कोई लोकप्रियता की भीड़ से देश का प्रधानसेवक बन सकता है पर राजनीतिज्ञ नहीं बन सकता!


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