R.N.I. No. UPHIN/2005/17084
जितेंद्र शिवहरे
एक* बहुत बड़े राजनीतिक नेता का युं अचानक अपनी पार्टी छोड़कर विपक्षी पार्टी की सदस्या ले लेना किसी बहुत बड़ी से राजनीतिक हलचल से कम न था। इतने वर्षों से पुर्व पार्टी में रहकर वे इसे पुश्तैनी पार्टी ही मानते आये थे। किन्तु जब यहां महत्वाकांक्षा वर्षों की सेवा के बाद भी पुर्ण नहीं हुई तब राष्ट्रीय उदय पार्टी ही राष्ट्र का भविष्य है जानकर यहां शरण ले ली। नेताजी के पार्टी में आ जाने से जहां पार्टी आलाकमान प्रसन्न था तो वहीं उन संघर्षरत तात्कालिक नेताओं को मिलने वाले राजनीतिक पदों की संभावनाओ पर ग्रहण लगता दिखाई दिया। क्योंकि इतना बड़ा नेता अपनी पार्टी छोड़कर उनकी पार्टी में आ रहा है तब उसे उचित मान-सम्मान तो देना ही होगा न! खैर! नवागंतुक नेता जी के लिए एक बहुत बड़ा पद खाली कराया गया। ताकी पुर्व पार्टी को भी पता चले कि उनकी पार्टी में आने वाले प्रत्येक नेता का यथोचित पद लाभ देकर सम्मानित करना राष्ट्रीय उदय पार्टी का कर्तव्य ही नहीं वरन धर्म भी है। विशेष पद पाकर दल बदल कर आये नेताजी फुले नहीं समा रहे थे। भाषण बाजी में तो दक्ष थे ही। सो इन्हें भेज दिया गया रैली और जनसभा में संबोधन देने। अब बेचारे भोले जन मानस जिस पार्टी की सदियों से इन नेताजी और नेताजी के बाप-दादा के श्रीमुख से बढ़ाई ही सुनते आ रहे थे, अब नेताजी के मुख से उसी पार्टी के विषय में अपशब्द और भारी निंदा का लम्बा-चौड़ा भाषण पचा नहीं पा रहे थे। सो बैठे रहे बेमन से। क्योंकि चाय-नाश्ता बनने में अभी वक्त था। उपर से जो इन लोगों को बसों में भेड़-बकरियों की तरह भरकर लाया था, वह मुंशी रघु भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। इन श्रौताओं को आज की दाड़की के रूपये रघु ही देने वाला था। खैर! नेताजी का भाषण समाप्त हुआ। उनके चेहरे पर असीम शांती और सुख के भाव उभर आये थे। आज नेताजी ने अपनी पुर्व पार्टी और उनके कर्ताधर्ताओं को जमकर गालितां दी थी। वर्षों पुरानी हृदय की भड़ास निकालकर नेताजी प्रसन्न मुद्रा में अपनी चमचमाती कार में जा बैठे। एक बात तो सच थी। नेताजी के ठाठ कम नहीं हुये थे। वे पुर्व पार्टी में ही राजा थे और यहां भी राजा के समान ही विलासिता के समस्त सुख भोग रहे थे। जनता को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। वह वहां भी खाने-पीने और दिन-भर की दाड़की की पगार के रूपये के लोभ में तपती दोपहरी में नेताजी का भाषण बड़े चाव से सुनती थी और यहां भी उसी लोभ के वशीभूत आई थी। उन्हें पार्टी या नेता अथवा अपनी पगार और खाने-पीने से सरोकार है या नहीं, ये साफ नहीं था। क्योंकि नेता और पार्टी तो आती-जाती रहेंगी! ये देश जिंदा रहना चाहिये। यहां के लोग जिंदा रहना चाहिये। पार्टी मीटींग में आगंतुक नेताजी के विषय में विद्यमान अन्य में से एक नेता का तर्क सुनकर सभी सोचने पर विवश हो गये। उनका कहना था जिस नेताजी को हम सर आंखों पर बिठा रहे है, जब वह अपने बाप-दादा के समय की राजनीतिक पार्टी को लात मारकर हमारी पार्टी में आ सकते है तब क्या ग्यारंटी है कि वह हमारे ही बनकर रहेंगे? जो अपने घर का न हुआ वह हमारा क्या होगा? खैर! चिंता की बात तो थी। मगर इसका कोई उचित हल भी नहीं था। सो 'जो होगा देंखेंगे' के वाक्य का उच्चारण कर पार्टी अध्यक्ष ने मीटींग समाप्ती की घोषणा कर दी।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें