R.N.I. No. UPHIN/2005/17084
मंजुल भारद्वाज
आग़ जलती रहे घर के चूल्हे में
पृथ्वी के गर्भ में सूर्य के अस्तित्व में
रिश्तों की गर्मजोशी में
चाहत के झरने में सांसों के आवागमन में
उदर के पाचन में
बर्फ़ के सीने में
प्रणय पर्व में
बीज धारण किए खेत की माटी में
विवेक के शांत प्रकोष्ट में
बुद्धि के वैचारिक प्रभाग में
न्याय पुकारती रूह में
आग़ जलती रहे
माटी के चोले में
जब तक आग़ है
तब तक जीवन है
जब तक देह है
आग़ नहीं है
तो आप जीते जी मोक्ष धाम में
स्थापित हैं
मुक्ति के लिए आग़ जलती रहे!
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें