R.N.I. No. UPHIN/2005/17084
भारत का बुद्धिजीवी वर्ग 12 करोड़ मज़दूरों के सत्याग्रह को राजनैतिक बदलाव की ठोस पहल नहीं मानते वो इसे मज़दूरों की लाचारी भर मानते हैं...
मंजुल भारद्वाज
भारत का बुद्धिजीवी मुर्छित अवस्था में है. वो अपनी चीर निद्रा में सोते सोते सत्ता की आलोचना को ही अपना परम कर्तव्य मान रहा है. वो आलोचना दांत और आवाज़ रहित है. यह वर्ग अपनी मांद से बाहर आने कोई तैयार नहीं हैं. यह मानने को तैयार नहीं है की इस समय देश की सत्ता पर क्रूर विवेकशून्य विकारी परिवार विराजमान है. उसे संघर्ष करने के लिए नए तरीके ईज़ाद करने की ज़रूरत है. लॉकडाउन में एक बहुत बड़ा सत्याग्रह हुआ. ग़रीब मज़दूरों ने मोदी के साम्राज्य के खिलाफ़ बगावत कर दी. और गाँव की ओर चल पड़े. भूखे प्यासे पैदल चलते हुए... विकास के हाईवे को अपने लहू से रंग दिया... मोदी पुलिस के डंडों को अपने शरीर पर सहते हुए वो हिंसक नहीं हुए... वो रुके नहीं चलते रहे ..एक नहीं..दो नहीं ..12 करोड़ ... !
बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी गलतफ़हमी है की ‘मज़दूर’ सोच नहीं सकता मज़दूर सिर्फ़ ‘मजबूर’ रहता है.
इतना बड़ा अहिंसक पैदल मार्च, सत्याग्रह बुद्धिजीवियों को ‘लाचारी’ लगती है... प्रतिबद्दता नहीं लगती ..मजबूरी लगती है प्रतिरोध नहीं लगता .. बिना विचार का काम लगता है ... बिना सोचा समझा कर्म लगता है ...इसकी पहली वजह है की आज जो भारत में बुद्धिजीवी वर्ग है वो जीवन यापन के संकट से रोज़ नहीं जूझता वो या तो सरकारी पदों पर है या उससे सेवानिवृत है ..या पिछली सरकार की खूब मलाई खाया है ... पिछली सरकार का सिरमौर पत्रकार है..यानी ज़मीन से जुड़ा हुआ नहीं है..अपवाद हमेशा होते हैं ...पर जो अपवाद हैं वो अदृश्य हैं ...! दूसरी वजह है गलतफ़हमी.. बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी गलतफ़हमी है की ‘मज़दूर’ सोच नहीं सकता मज़दूर सिर्फ़ ‘मजबूर’ रहता है. मज़दूर खुद संगठित नहीं हो सकता उसको संगठित करने के लिए किसी नेता की जरूरत होती है.
वो राजनैतिक बदलाव के लिए मज़दूरों की ठोस पहल नहीं मानते वो चाहते हैं सब ‘मज़दूर’ कर लें
वो आराम से यह भूल जाते हैं की सामूहिक ‘विपदा’ भी नेतृत्व करती है! मज़दूरों ने मोदी सरकार के झूठतंत्र को उखाड़ फेंका है. गोदीमीडिया की औकात बता दी है. सरकार की पूंजीवादी नीतियों के विध्वंस को सबके सामने ला दिया. भारत की आत्मा ‘गाँव’ को चर्चा का केंद्र बनाया. मज़दूरों ने बुद्धिजीवियों को एक राजनैतिक बदलाव के लिए ठोस मुद्दा दिया. पर बुद्धिजीवियों का पलायन जारी है वो इससे सत्याग्रह नहीं, लोकतंत्र की लड़ाई नहीं केवल मज़दूरों की ‘लाचारी’ मानते हैं. वो इसे राजनैतिक बदलाव के लिए मज़दूरों की ठोस पहल नहीं मानते वो चाहते हैं सब ‘मज़दूर’ कर लें ... !
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