बिकते प्रतिनिधि खरीदते लोग.. लोकतंत्र के लिए खतरा..?

हम विश्व के सामने बेशर्म विश्वासघाती और बिकाऊ प्रतिनिधि वालो देश में प्रथम गिने जायेंगे...?


अशोक कुमार


लोकतंत्र दुनिया के सभी शासकीय तरीको में से उत्तम माना गया है, यह कटु सत्य है। भारत में सामंतवाद पूँजीवाद और गद्दारो का गठजोड़ ऐतिहसिक सत्य रहा जब-2 इन तीनों की शक्तियां बढ़ी है। देश में ऐतिहासिक संकट पैदा हुआ है। इस संकट से मुक्ति और देश की मान्यता प्राप्तः समझदारी चरी अपनी भागीदारी का प्रतिनिधित्व या प्रतिनिधि सत्ता स्थापित करने के लिए देश ने अकूत संपदा और होनहार स्वाभिमानी वीर सपूतो को खोया है हजारों नहीं, लाखों की संख्या में अपनो का साया गया देश की रूह काँप उठी थी यह सब लगभग प्रत्येक देश में होता रहा है


भारत में कुछ ज्यादा समय तक चला संघर्ष रहा है। लेकिन इतने लम्बे और भीषण संघर्ष का एक उद्देश्य था कि हम एक सच्चा लोक तंत्र स्थापित करेंगे और अपने देश में एक वोट एक कानून संविधान बनायेंगे और स्वयं उससे शासित होंगे और संविधान की उदेदशिका को प्राप्त करेंगे। भारत में संसद का गठन राष्ट्रपति, राज्यसभा और संसद से मिलकर होता है, और राज्य स्तर पर विधान सभा का गठन राज्यपाल विधानमण्डल के सदस्यों से मिलकर होता है। केन्द्रशसित प्रदेशों और दिसदनात्म राज्यों में भी मिलती जुलती प्रक्रिया होती हैं। भारत के संविधान के अनुच्छेद 79 के तहत संसद के गठन का प्रावधान है जिसकें राष्ट्रपति लोकसभा सदस्य और राज्यसभा सदस्यों से मिलकर होगा और उनका एक निश्चित कार्यकाल भी होगा और उनको बहुत सारी सुविधाएं और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। और वे अपना कर्तव्य पालन शुरू करने से पहले देश के सम्मुख देश की प्रथम पवित्र पुस्तक में वर्णित व्यवस्था के अनुपालन की शपथ लेता है। उसी तरह प्रत्येक राज्य मे अनुच्छेद 168 के तहत विधानमण्डलो के गठन की प्रक्रिया शपथ और शर्तें है।


संविधान में और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में यह कही पर भी यह वर्णन नहीं है। कि एक संवैधानिक पद के लिए चुना गया व्यक्ति या कुछ चुने गये व्यक्तियों का समूह ही देश के लोकतंत्र के सामने लोकतांत्रिक संकट पैदा कर देगा। उस प्रक्रिया में अब ग्यारहवी अनुसूची के अंतर्गत अनुच्छेद 243 - झ और बारहवी अनुसूची के अंतर्गत अनुच्छेद 243 - ब भी क्रमशः पंचायती राज व्यवस्था और नगर पालिकाओं में यह सब विचित्र और अभयदित रूप में घटित हो रहा है।


देश और प्रदेश की लोकतांत्रिक शासकीय व्यवस्था चन्द समूहों के गिरवी या कठपुतली बनकर रह जायेगी तब उसकी भरपाई किससे की जायेगी और मतदाताओं के विश्वास और प्रतिनिधित्व का क्या होगा। इधर लोकतंत्र के भीतर और बाहरी रूपों पर आघात करके उसकी प्रतिरोधक क्षमता को कमज़ोर करके उसका खुला बाजारीकरण जोर पर है, और हम विश्व के सामने बेशर्म विश्वासघाती और बिकाऊ प्रतिनिधि वालो देश में प्रथम गिने जायेंगे। जैसा कि अभी हाल में यह कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है। संवैधानिक पर्यवेक्षको के सामने खुला नंगा नाच हो रहा है, इन सबकी मूक सहमति बनी हुई हैं। 'हार्स ट्रेडिंग' का मतलब क्या यह मान्यता प्राप्त है? या नहीं तो सजा क्या है,


मतदाताओं के प्रति जवाबदेही क्या है


मतदाताओं के प्रति विश्वासघात है या प्रतिनिधित्व की निरंकुशता और संविधान की शक्तियों और शर्तो के साथ भद्दा मजाक और खुली बगावत या विश्वासघात। इन परिस्थितियों को संविधान की आत्मा और मतदाताओं के विश्वास की व्याख्या करने का समय आ गया है नहीं तो लोकतंत्र पर पूँजीवाद की विजय हो जायेगी संविधान और मतदाता सर्वोच्चता बाजारू हो जायेगी। समय से पहले त्यागपत्र दूसरी पार्टी के प्रति मोह ऐसी परिस्थिति में संवैधानिक संकट जानबूझ कर पैदा करना मतदाता के साथ विश्वासघात करना ऐसे में इनको सजा और समाधान क्या होना चाहिए, राष्ट्रीय चर्चा और चिंतन का विषय है।


विश्वास की खेती लुट जायेगी अराजकता असंतुष्टि और अविश्वास बढ़ जायेगा...


लोकतंत्र सेनानी आंदोलित हो जायेगें...


क्या कोई प्रतिनिधि अपने चुने जाने के बाद अपने चुनावी घोषणा पत्र मा नामांकन पत्र मे व्यक्तिगत जानकारी में उल्लेख करता है मेरे कृत्य क्या होंगे। मैं पार्टी निष्ण और मतदाता की पंचवर्षीय विश्वास को बीच में कुसमय पर तोड दूँगा। ऐसा नहीं तो क्यो ऐसा? क्या त्यागपत्र देने वाले प्रतिनिधियों से जो किसी शारिरीक मानसिक व्याधि से पीडित नहीं है त्याग पत्र सभाध्यक्षो को स्वीकार कर लेना चाहिए या उनके विश्वासघात मत को स्वीकार कर लेना चाहिए या उनके विश्वासघाती मत को स्वीकार किया जाना चाहिए या उनके त्यागपत्र को स्वीकार करने के बाद उन्हें फिर से चुनाव क्षेत्र में जाने देना चाहिए या कुछ वर्षा तक प्रतिबंधित करना चाहिए।


या चुनाव के कुछ निश्चित समय बाद खुली स्वेच्छा व्यक्त कर निश्चित समयबद्ध प्रावधानो के तहतः त्यागपत्र स्वीकार किया जाना चाहिए या बिना किसी कारण त्यागपत्र दिए जाने पर वेतनो भत्तों सहित संपूर्ण सेवा खर्चो को संचित निधि में जमा कर देना चाहिए और सरकारी चुनावी खर्च पहले और आगे के संपूर्ण चुनावी खर्च को त्यागपत्र देने वाले और दूसरे मध्यावधि चुनाव मे रिक्त चुनाव में जाने वाले से कि लिया जाय और यदि खाली सीट के लिए चुनाव होता है तो पूर्व त्यागपत्र दिये हुए प्रत्याशी को उस से चुनाव लडने से कम से कम उस चुनाव में भाग नहीं लेने देना चाहिए।


यह विषय राष्ट्रीय चर्चा चिंतन और माननीय उच्चतम न्यायालय और निर्वाचन आयोग समाध्यक्षो मतदाताओं के राष्ट्र परक विश्वास और न्याय और नीति का है न कि आज की रीति का नहीं तो यह ट्रेडिंग वायरस सरकार संविधान वायरस बन जायेगा यह वायरस लोकतंत्र को खा जायेगा विश्वास की खेती लुट जायेगी अराजकता असंतुष्टि और अविश्वास बढ़ जायेगा लोकतंत्र सेनानी आंदोलित हो जायेगें।


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