चलते हुए मजदूरों की तरह..

मंजुल भारद्वाज 


कानफोडू शोर के बीच 


दबे पाँव ख़ामोशी 


रूह में समा जाती है 


अपने आपको मथता मौन 


अवसाद से लिपटी रूह को मुक्त कर 


जीने की उम्मीद का दामन थामता है 


ख़ामोशी बोलने लगती है 


विद्रोह फूटता है 


सारी वेदना लावा बनकर 


सड़कों,शहरों,गाँव, देश को


अपने आगोश में ले


शोषणकारी,दमनकारी


सत्ता को लील देती है 


बिल्कुल आज देश में 


चलते हुए मजदूरों की तरह !


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