माना की दिल में जूनून है

कहीं कुछ छूटा


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल


माना की दिल में जूनून है 
मगर फिर भी एक सुकून है 
कर्म करो, लकीरों में कुछ नहीं 
यही मानव की जून है. 


आया खाली हाथ फ़क़ीर बनकर 
दुनियादारी चली लकीर बनकर 
कुछ मिल गया, कहीं खो गया 
खोयी -पायी तदबीर बनकर. 


जाने कितने मौसम रूठे
पीछे कितने सावन छूटे
जलना था फितरत में उसकी 
कितने जाने आँगन सूने. 


जीवन रहा पुरातत्व सा 
नहीं निखरा व्यक्तित्व सा 
उम्र निकल गयी ढूंढ़ने में "उड़ता ", 
खोया रहा अस्तित्व सा. 



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