किरणों में खूब नहाया
(अनुभूति) अंधकार ये, कभी ना हिस्से आया
रेनू अग्रवाल
सुख में लिप्त रहा जीवनभर, संतान न कोई पाया।
कष्ट अग्नि में निखरता, सोनाये भाव समझ न पाया।।
साधना सुविधा मीनारे, रेशम में लिपटा।
किरणों में खूब नहाया, अवसाद आभाव।।
अंधकार ये, कभी ना हिस्से आया।
आज मगर विचलित हूं, जीवन के मर्म में।।
अनभिज्ञ रह गया, पीड़ाओं के सागर में।
खुद को अनुभवहीन, हीन ही पाया।।
सुरत सारे सब बौने, मूलहीन हो गये।
आंधियारे उजियारे का फर्क, समझ न पाया।।
अंधियारी रातो के बाद, जब भोर न उजरी आई।
सुख सारे रसहीन हो गये, जब तृणा भाव न आया।।
संघर्ष भी हो जीवन में स्वयं को, परख कसौटी पाया।
तप कर निखरे मानव जीवन, और भी सुन्दर पाया।।
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